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कोहका फाउंडेशन: आदिवासियों के बीच रोल मॉडल बनाने की पहल

आदिवासी बच्चे पढ़ाई पूरी कर मिसालें बना सकें, इसी लगन से काम कर रहे हैं संजय नागर

FP Staff

आदिवासी शब्द हमारे देश में मीडिया में खूब प्रचलन में रहता है. नेताओं की जुबान पर भी चढ़ा रहता है. ज्यादातर बार जिक्र तब होता है जब नक्सली घटनाएं होती हैं. उन इलाकों की चर्चा होती है जहां आदिवासी रहते हैं. नक्सली कहते हैं कि वो आदिवासियों की लड़ाई लड़ रहे हैं और नेताओं की तरफ से भी ये पुरजोर दलीलें होती हैं कि आदिवासियों का हक नहीं मारने दिया जाएगा.

इन सारी बातों के बीच शायद ही कभी हमारे मन में ये विचार कौंधता हो कि शैक्षिक और आर्थिक रूप से पिछड़े आदिवासियों के लिए क्या किया जा सकता है? कई सारी बाध्यताएं हमें रोकती भी हैं. ज्यादातर बार हम इनके मुश्किल भरे जीवन के बारे में सिर्फ खबरें पढ़ने तक सीमित रह जाते हैं. या कभी बौद्धिक जुगालियां भी कर लेते हैं.


संजय नागर सिर्फ खबरें पढ़ लेने तक सीमित नहीं रहे. उन्होंने मध्य प्रदेश के सिवनी जिले के पेंच जैसे पिछड़े इलाके को चुना. वहां के गरीब आदिवासी बच्चों की शिक्षा के लिए काम करना शुरू किया. सैंकड़ों बच्चों को वो आज अपने स्कूल या कह सकते हैं समानांतर स्कूल में पढ़ा रहे हैं.

संजय नागर मानते हैं कि अभी भी सबसे बड़ा चैलेंज माता-पिता को इस बात के लिए तैयार करना है कि वो बच्चों को स्कूल भेजें.

संजय नागर आदिवासी लोगों, जिनके बारे में हम सिर्फ चर्चा करते हैं, के बीच से एक ऐसा रोल मॉडल तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं जो आदर्श बन सके. वहां के लोग उसे देखकर आगे बढ़ सकें.

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संजय दुनिया के कई बड़े बैंकों में रह चुके हैं. बैंकिंग के पेशे से जब भी मौका निकलता था तो वो पेंच टाइगर रिजर्व आया करते थे. संजय के शब्दों में ये जगह उन्हें पेशे से इतर शांति का एक मौका देती थी. टाइगर रिजर्व की अपनी कई बार की यात्राओं के दौरान उन्होंने यहां की गरीबी और अशिक्षा देखी. फिर इस इलाके में बदलाव का सपना देखा.

संजय बताते हैं, ‘मैं जब यहां छुट्टियां बिताने आता था तो बच्चों को पढ़ाता था. फिर करीब 6 साल पहले कोहका फाउंडेशन की शुरुआत करने के लिए मैंने जॉब छोड़ दी. शुरुआती तीन-चार सालों तक ये संस्था मैंने अपने बूते चलाई. फिर जब बच्चों की संख्या बढ़ी तो और टीचरों को भी रखना शुरू किया. हमने अपना लक्ष्य मिडिल एजुकेशन रखा. कई रिसर्च बताते हैं कि अगर बच्चा दसवीं पास कर गया तो वो कम से कम इंटर तक की पढ़ाई तो करता ही है. हम इस संस्था के माध्यम से लगातार ये प्रयास कर रहे हैं कि इलाके के बच्चे पढ़ाई बीच में न छोड़ें.’

कोहका गांव की वनिता उन लड़कियों में से एक हैं जिनकी फाउंडेशन ने 12वीं पास कराने में मदद की.

शुरुआती परेशानियों के बाद चूंकि हमें एक सस्टेनेबल सिस्टम खड़ा करना था तो फिर हमने अपने दोस्तों और जानने वालों से मदद की गुहार की. हमने इलाके में अपनी एक्टिविटी और बढ़ानी शुरू की.

संजय बताते हैं कि हमारा सबसे बड़ा कार्यक्रम है ‘आनंदो’. इसके तहत हम साल भर बच्चों को पढ़ाई में मदद करने के लिए क्लासेज चलाते हैं. हमारी संस्था जिन 25 गांवों में काम कर रही है, उनमें 6 स्कूल हैं. ये संस्था बच्चों को बोर्ड की परीक्षा की तैयारी करवाती है जिससे 10वीं में बेहतर नंबर ला सकें और भविष्य में पढ़ाई न छोड़ें. हम हर शनिवार को एक वर्कशॉप भी रखते हैं. इसके अलावा हर तीन महीने पर हम पैरेंट्स-टीचर मीटिंग भी रखते हैं.

आनंदों कार्यक्रम के तहत 8 से लेकर 12 तक के बच्चों को पूरे सप्ताह स्कूल शुरू होने के पहले कोहका फाउंडेशन के टीचर चार घंटे पढ़ाते हैं. और संडे को चार क्लासेज अलग से ली जाती हैं.

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संजय कहते हैं कि हाल में हुई में आखिरी पैरेंट्स-टीचर मीटिंग में 15 परिवार आए थे. आपको सोचकर आश्चर्य भी हो सकता है कि सालों के काम के बाद हम सिर्फ इतने ही लोग इकट्ठा कर पाए! लेकिन विश्वास मानिए कि अभी भी हमारे लिए यहां के पैरेंट्स को ये समझाना मुश्किल का काम होता है कि वो अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए भेजें. हमें उनके बच्चों को पढ़ाने के लिए कई स्तरों पर जंग लड़नी पड़ती है. लेकिन फिर भी काफी अंतर पड़ा है. पहली मीटिंग में सिर्फ तीन लोग आए थे. 15 की संख्या को हम बड़ी कामयाबी मानते हैं. ये सिलसिला आगे भी बढ़ता जाएगा.

यहां गांव बहुत दूर-दूर गांव हैं. हम खुद गांवों में जाते हैं. वहां बच्चों के मां-बाप से मिलते हैं उन्हें समझाते हैं. संजय का मानना है कि उनकी जंग अपने प्रयास के जरिए इस आदिवासी इलाके के बच्चों के बीच से एक ऐसा रोल मॉडल निकालने की है जो प्रेरणा बन सके. वो कहते हैं यहां के लोगों में पढ़ाई का कोई महत्व नहीं है. वो समझ ही नहीं पाते कि आखिर पढ़ाई से फायदा क्या होगा. अगर इतने सारे बच्चों के बीच से मैं कुछ को भी सफल बना सका तो समझूंगा कि मेरी जंग सफल हुई. अभी हमारे प्रयासों की वजह से कई बच्चे बोर्ड एक्जाम में अच्छे नंबर लेकर आए हैं.

और भी कई जागरूकता के कामों से जुड़ा है कोहका

इलाके में कई तरह की समस्याओं का अंबार है. संजय सबका समाधान अपने ढंग से ढूंढने की कोशिश करते हैं. संजय बताते हैं कि हमने अडोल्सेंट एजुकेशन को लेकर भी प्रोग्राम किए हैं.

इसके अलावा पास में ही एक गांव है जहां के आदिवासी मिट्टी के बर्तन बनाया करते हैं. ये उनका पारंपरिक काम है. लेकिन नई पीढ़ी इस काम से हिचक रही है. हमने किशोरों को इस काम के लिए शिक्षित करने के लिए देश के बड़े कलाकारों को बुलाया और इसके लिए वर्कशॉप करवाई.

ये सवाल पूछने पर कि क्या बैंकिंग का पुराना अनुभव भी यहां कुछ मदद करता है तो संजय कहते हैं कि मैं फाइनेंस में रहा हूं. हां, ये बात तो मुझे समझ में आती है कि लोगों की आर्थिक स्थिति को कैसे बेहतर किया जा सकता है. इसके अलावा तो मेरे पुराने पेशे से यहां कोई मदद नहीं मिलती.