view all

मोहम्मद रफी जन्मदिन: तुम मुझे यूं भुला न पाओगे!

रफी के बारे में मशहूर है कि गांव के एक फकीर के गीत सुनकर वे उसकी नकल करके गाने लगे थे.

Krishna Kant

तेज आवाज में गाना बज रहा था, 'तुम मुझे यूं भुला न पाओगे...जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे, संग संग तुम भी गुनगुनाओगे...'

जून की चिलचिलाती उदास सी दोपहर थी. मैं अपनी घर की छत पर लेटा था. घर के ठीक बगल एक भारी भरकम बरगद का पेड़ उस दोपहरी से हमें बचाने का भरपूर प्रयत्न कर रहा था. घर की छत पर आधी जगह में कुछ कमरे बने थे, आधी छत इस बरगद के नीचे खाली थी, जहां हम गर्मी की छुट्टियों की दोपहर काटा करते थे. तभी मेरे रिश्तेदार आकर मेरे बगल बैठ गए और बोले, 'मैं यह गाना कम से कम दो हजार बार सुन चुका हूं.'


मैं चौंक गया. दो हजार बार? ऐसा क्या है इस गाने में? तब तक वे आगे बोले, 'हिंदुस्तान में इससे बड़ा गायक न अब तक पैदा हुआ और न कभी होगा.' आगे की चर्चा में उन्होंने ध्यान दिलाया, 'हम हिंदुओं के घर में जितने फिल्मी भजन बजते हैं, उनमें से ज्यादातर रफी साब ने गाए हैं. यह आदमी गायक के रूप में देवता है, जो पूजने लायक है.'

यह मोहम्मद रफी साब से हमारा पहला परिचय था. हालांकि, उनके गाने तो पहले भी सुने थे, लेकिन इस खूबी के बारे में हमें किसी ने नहीं बताया था. इसके बाद मेरी दिलचस्पी बढ़ी. दो साल बाद जब मैं इलाहाबाद गया तो रफी साब के बारे में खूब जानकारियां जुटाईं. मुख्य श्रोत था विविध भारती. 'उजाले उनकी यादों के' जैसे कार्यक्रम, अखबार और पत्रिकाओं से हमने उनके बारे में जाना कि कैसे रफी साब की मखमली आवाज ने एक समय पूरे देश को दीवाना बना रखा था और हम भी उनके दीवाने होते गए.

फकीर ने गाने के प्रति लगाव पैदा किया

रफी साब अमृतसर के पास पंजाब में कोटला सुल्तान सिंह गांव में 24 दिसंबर 1924 को जन्मे थे. उनके बारे में मशहूर है कि गांव के एक फकीर के गीतों ने उन्हें बहुत लुभाया. वे उसकी नकल करके गाने लगे. बाद में उनके माता-पिता उस गांव से लाहौर चले गए.

जावेद अख्तर ने एक प्रोग्राम में बताया था कि वहां पर रफी के बड़े भाई दीन मोहम्मद के दोस्त हमीद ने रफी को पहचाना और उन्हें बहुत प्रोत्साहित किया. उसके बाद उन्हें उस्तादों के पास संगीत की शिक्षा लेने के लिए भेजा गया. उस्ताद बड़े गुलाम अली खां, वहीद खां, जीवन लाल मट्टू, फिरोज निजामी इन उस्तादों ने अपनी शागिर्दी में रफी साब के फन को निखारा.

अपने परिवार के साथ एक ग्रुप फोटो में मोहम्मद रफी

रफी साब 13 बरस के थे. उसी दौरान एक बार तब के मशहूर गायक केएल सहगल एक प्रोग्राम में आए थे. वहां बिजली चली गई. प्रोग्राम में देरी हो रही थी और श्रोता बैठे हुए थे. तब श्रोताओं को रोककर रखने के लिए रफी को मंच पर भेज दिया गया. वहां पर संगीत निर्देशक श्याम सुंदर भी थे. उन्होंने भी रफी को सुना और उनकी कला से बहुत मुतासिर हुए. बाद में इन्हीं श्याम सुंदर जी ने फिल्मों में रफी साब को पहली बार गाना गाने का मौका दिया था. पंजाबी फिल्म 'गुल बलोच' में उन्होंने 'सोणिए हीरीए' गाना गाया था.

नौशाद के साथ जुगलबंदी

बाद में रफी साब अपने बड़े भाई के साथ मुंबई आ गए. यहां भी किसी हिंदी फिल्म में उनको पहली बार गाना गाने का मौका श्याम सुंदर ने ही दिया था. वे यहां तमाम संगीतकारों और निर्देशकों से मिलने लगे और धीरे-धीरे उन्हें कुछ गाने भी गाने को मिलने लगे.

उनकी गायिकी में चार चांद तब लगा जब उन्हें संगीतकार नौशाद का साथ मिला. 1944 में मोहम्मद रफी नौशाद साहब के पास पहुंचे. नौशाद ने उनकी आवाज सुनी और बहुत खुश हुए. उन्होंने रफी को अपने गाने के लिए बुला लिया. नौशाद के संगीत निर्देशन में उन्होंने 'पहले आप' फिल्म के लिए 'हिंदुस्तान के हम हैं' गाना गाया.

इसके अलावा संगीत की ताजगी के साथ फिल्म संगीत में आए शंकर-जयकिशन और ओपी नैयर के साथ भी रफी साब ने खूब कमाल किया. एसडी बर्मन के साथ भी उन्होंने कई सदाबहार गीत गाए.

'बापू की वो अमर कहानी'

1947 में रिलीज हुई फिल्म 'जुगनू' का गाना, 'यहां बदला बेवफाई के सिवा क्या है' सुपर हिट रहा. इसके बाद देश का बंटवारा हो गया तो रफी साब ने भारत में ही रहने का फैसला किया.

महात्मा गांधी की हत्या के बाद गीतकार राजेंद्र कृष्ण ने गीत लिखा था 'सुनो सुनो ऐ दुनिया वालों बापू की ये अमर कहानी', ये गाना रफी साब ने गाया. बताते हैं कि ये गाना दिल्ली में हुए एक जलसे में उन्होंने गाया. बाद में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने घर पर रफी का एक कार्यक्रम कराया जिसमें उन्होंने यही गाना सुनाया था.

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के साथी गायक और गायिकाओं के साथ मोहम्मद रफी

जावेद अख्तर रफी साब के बारे में कहते हैं कि 'मुझे उनको लेकर हैरत होती है. वह कोई भी गीत गाएं, भजन गाएं, गजल गाएं, कव्वाली गाएं, मनचले गीत गाएं, भावुक गाना गाएं, क्लब का गीत हो, ऐसा लगता है कि रफी साब की आवाज इसी गीत के लिए बनी है. अगर मैं कहूं कि रफी साब ने ही प्लेबैक सिंगिंग को प्लेबैक सिंगिंग बनाया तो गलत नहीं होगा. उन्होंने ही पर्दे पर अदाकारी के साथ प्लेबैक गायन को मुमकिन बनाया.'

और रफी बन गए शम्मी कपूर की आवाज

एक जमाने में फिल्मों के हीरो की आवाज का मतलब था मोहम्मद रफी. रफी साहेब की खूबी थी कि वे जिस भी अभिनेता के लिए गाना गाते थे, उसकी आवाज और स्टाइल से अपनी आवाज मिलाने की पूरी कोशिश करते थे.

इसी कोशिश में शम्मी कपूर से उनकी जोड़ी जम गई और शम्मी कपूर के लोकप्रिय गीतों में से ज्यादातर गाने रफी साब ने ही गाए. रफी साब के गाए शम्मी कपूर के तमाम गाने लोकप्रियता की बुलंदी को छूने लगे. शम्मी कपूर सुपर हीरो बन गए. शम्मी कपूर कहा करते थे कि रफी उनकी आवाज हैं, रफी के बिना मेरी फिल्मों में मैं अधूरा हूं.

जानकार बताते हैं कि उस दौर के कई अभिनेताओं को लगता था कि अगर रफी साब उनके लिए गाना गा दें तो वे भी सुपरस्टार बन सकते हैं. ट्रैजेडी किंग दिलीप कुमार और धर्मेंद्र अपनी फिल्म के गाने किसी और गायक से गंवाने के लिए तैयार ही नहीं होते थे.

रफी ने फिल्मों में करीब 26 हजार गाने गए. वे दिलीप कुमार, देवानंद, शम्मी कपूर, राजेन्द्र कुमार, शशि कपूर, राजकुमार जैसे नामचीन अदाकारों की आवाज बन गए. उन्होंने कुल 700 फिल्मों के लिए करीब 26 हजार गाने गाए.

लताजी से अनबन

रफी साब का स्वरकोकिला लता मंगेशकर के साथ हुआ झगड़ा बहुत मशहूर हुआ. हुआ यूं कि 60 के दशक में लता जी अपने गानों की रॉयल्टी लेने लगी थीं. उनका कहना था कि सभी गायकों को उनके गानों के लिए रॉयल्टी मिलनी चाहिए. लता जी, तलत महमूद और गायक मुकेश ने मिलकर एचएमवी कंपनी और निर्माताओं से रॉयल्टी मांगी, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली.

लता मंगेशकर के साथ गानों की रॉयलटी के मुद्दे पर रफी और लता में हुई अनबन काफी मशहूर है

इन तीनों गायकों ने एचएमवी के लिए गाना गाना ही बंद कर दिया. लेकिन कंपनी वाले रफी साब को समझाने में कामयाब हो गए. रफी बहुत सीधे-सादे इंसान थे. उन्होंने कहा मुझे रॉयल्टी नहीं चाहिए. इस बात पर उनका लता से विवाद हो गया. काफी समय तक दोनों ने साथ गाना भी छोड़ दिया. यह झगड़ा साढ़े तीन साल चला. बाद में वे फिर साथ गाने लगे.

एक बार नौशाद साहब ने विविध भारती पर बताया था कि रफी साब को कोई गाना बहुत पसंद आ जाए तो उनकी आंख से आंसू छलक आते थे. वे कई अच्छे गाने गाकर उसका मेहनताना भी नहीं लेते थे. नौशाद के लिए उन्होंने कई ऐसे गाने गाए जिसके लिए कोई मेहनताना नहीं लिया या एक रुपया लेकर गाया.

मंदिरों में भी गूंजते हैं रफी साब

रफी साब ने तमाम ऐसे भजन गाए जो कई दशकों से मंदिरों में बजते रहे हैं. मन तड़पत हरिदर्शन को आज, ओ दुनिया के रखवाले, मधुबन में राधिका नाची रे, मन रे तू काहे न धीर धरे, मेरे मन में हैं राम मेरे तन में हैं राम, सूना सूना लागे बृज का धाम, अंखियां हरि दर्शन की प्यासी, उठ जाग मुसाफिर भोर भई, जय रघुनंदन जय सियाराम, सुख के सब साथी दुख में न कोई, ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, ओ शेरोंवाली, तूने मुझे बुलाया शेरा वालिये, गंगा तेरा पानी निर्मल, राम जी की निकली सवारी, बड़ी देर भई नंदलाला आदि भजनों को उन्होंने अपने खूबसूरत सुरों में पिरोया.

प्लेबैक सिंगिंग में रफी साब के कद का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि तमाम गायकों ने उनकी नकल करके गाया और गायक के रूप में अपनी पहचान बना ली.

शब्बीर कुमार, मोहम्मद अजीज, अनवर और सोनू निगम इसके उदाहरण हैं. सोनू निगम ने तो रफी साब के गानों का कवर वर्जन तो बिल्कुल उन्हीं जैसा गाया, लेकिन अपनी मौलिक गायकी भी बनाए रखी. इसके उलट शब्बीर कुमार, मोहम्मद अजीज और अनवर तो उन्हीं जैसा गाते रहे.

आज इस महान गायक की जन्मतिथि है. हम फिल्म संगीत में उनके महान योगदान के लिए उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के साथ कभी न पूरी होने वाली यह कामना कर सकते हैं कि काश, हमने रफी साब को खुद गाते हुए देखा होता!