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औरतों से ज्यादा खाली वक्त बिताते हैं मर्द: पर हमारी समस्या इससे बड़ी

वैसे तो, महिलाओं के लिए लीज़र टाइम की बहस जरूरी है. लेकिन इसके चक्कर में हम ये न भूल जाए कि अभी वर्किंग कल्चर में औरतों की भागीदारी पर ध्यान देना ज्यादा जरूरी है

Tulika Kushwaha

एक सर्वे ने भी ये बात साबित कर दी है, जिसे सारी दुनिया कहती आई है. औरतों के मुकाबले आदमी ज्यादा खाली वक्त बिताते हैं, जबकि औरतें बाकी काम निपटाने में ही रह जाती हैं. यहां तक कि पिछले 15 सालों में औरतों की हालत और खराब ही हुई है. सर्वे में सामने आया है कि इन सालों में आदमियों के लीज़र टाइम में बढ़ोत्तरी भी हुई है और औरतों को अभी भी वक्त के साथ मारामारी करनी पड़ रही है.

ब्रिटेन के ऑफिस ऑफ नेशनल स्टैटिक्स ने आंकड़ें जारी किए हैं. जिनमें सामने आया है कि 2015 में आदमियों ने एक हफ्ते में 43 घंटे खाली वक्त में बिताए, जो 2000 में 42.88 घंटे था. इस दौरान औरतों का लीज़र टाइम 39.24 घंटों से घटकर 38.35 हो गया है.


अनपेड काम में निकलता है औरतों का वक्त

इस सर्वे में कहा गया है कि औरतों को खुद के लिए ज्यादा वक्त मिल सकता है, लेकिन वो ये वक्त बाकी के अनपेड काम करने में बिता देती हैं. उनके पास अगर नौकरी का जिम्मा हो तो इसके बाद मिलने वाले वक्त को घर-गृहस्थी, बाल-बच्चों में लगाती हैं. अगर वो इन कामों में बिजी न होती या उन्हें उनके पार्टनर्स से मदद मिलती तो उन्हें भी थोड़ा और खाली वक्त मिल पाता.

इस रिसर्च में एक और चीज सामने आई है. अधेड़ औरतों की स्थिति और खराब है क्योंकि उनके पास डबल जिम्मेदारी है- अपने से छोटों की भी और अपने से बूढों की भी. अधेड़ आदमी भी इस जिम्मेदारी में हाथ बंटा रहे हैं लेकिन फिर भी फर्क बहुत ज्यादा नहीं है. इसी तरह बच्चों की जिम्मेदारी में भी आदमी भागीदार बन रहे हैं लेकिन फिर इस हद तक नहीं कि कोई फर्क दर्ज किया जा सके.

हमारी अपनी अलग ही समस्या है

अब जरा भारतीय संदर्भ में सोचते हैं. अब मैं इन आंकड़ों को खारिज कर देना चाहती हूं. मेरे हिसाब से भारतीय महिलाओं के लिए हफ्ते में 38 घंटे का खाली वक्त भी उनके हाथ से बाहर की चीज है. उन्हें अगर खुद के लिए इसका आधा वक्त भी मिल जाए, तो अलग बात हो.

हमारे यहां सामान्य धारणा है कि नौकरी करना औरतों की जरूरत नहीं. अगर वो जॉब कर रही हैं, तो शौक की वजह से. वैसे, कभी-कभी घर में एक्स्ट्रा इनकम के लिए भी औरतों के जॉब करने को जरूरत समझा जाता है. लेकिन आम तौर पर औरतों और नौकरी को साथ जोड़कर नहीं देखा जाता. ये धारणा पहले से मौजूद इस धारणा को और मजबूत करती है कि घर-परिवार से जुड़े सारे काम औरतों के जिम्मे की चीज हैं.

फिर आप ही बताइए, घर के काम, जैसे- खाना-पकाना, कपड़े धुलना, साफ-सफाई, बच्चों का ख्याल रखना भी कोई काम है क्या? ये सारे काम हाउसवाइफ करती हैं, जिनका वर्किंग वुमन से कम दर्जा होता है. और वर्किंग वुमन हो तो भी क्या, घर का काम तो औरत ही करेगी. (हालात बदले हैं, बिल्कुल बदले हैं. अब मर्दों की ओर से थोड़ी भागीदारी दिखाई जाने लगी है लेकिन हालात अभी खुश होने वाले नहीं हैं).

वैसे तो, महिलाओं के लिए लीज़र टाइम की बहस जरूरी है. लेकिन इसके चक्कर में हम ये न भूल जाए कि अभी वर्किंग कल्चर में औरतों की भागीदारी पर ध्यान देना ज्यादा जरूरी है. महिलाओं को खुद के बारे में सोचने का वक्त भी नहीं मिलता, इसलिए वो प्रोडक्टिव भी नहीं हो पाती हैं. अगर उन्हें थोड़ा वक्त मिले तो हो सकता है वर्किंग कल्चर में भी उनकी संख्या बढ़े.

2017 में आई इंडिया डेवलपमेंट रिपोर्ट की मुताबिक, भारत में महज 27% महिलाएं नौकरी करती हैं. बाकी की 73% महिलाएं किसी प्रकार की इंडस्ट्री से नहीं जुड़ी या उन्हें तय मानकों के हिसाब से नौकरीशुदा नहीं कहा जा सकता. तो फिर कहा जाना चाहिए कि फिर को भारतीय महिलाओं के पास ज्यादा वक्त होना चाहिए. लेकिन नहीं वो घर-गृहस्थी की जिम्मेदारियों में लिपटी न खुद के लिए वक्त निकाल पाती हैं, न ही नौकरी करने से आने वाली आत्मनिर्भरता का एहसास कर पाती हैं. इन दोनों ही हालात में वो नगण्य हैं.

अभी वो वक्त दूर है, जब हम इस बात के आंकड़ें गिनाए कि बराबर अनुपात में काम कर रहे महिलाओं और पुरुषों के लीज़र टाइम में बड़ा गैप है.