view all

मदुरै में कन्या पूजन के नाम पर बेहद शर्मनाक परंपरा

डीएम ने तमिलनाडु में चल रही इस रस्म में हस्तक्षेप किया है

FP Staff

साहिर लुधियानवी के लिखे एक मशहूर गाने की लाइन है, 'तार्रुफ रोग हो जाए तो उसको भूलना बेहतर... ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा.' ये बात अक्सर लोगों को समझ नहीं आती है. खासकर तब जब धर्म के नाम पर किसी सड़ी-गली रवायत को पकड़े रहते हैं. ऐसा ही एक मामला तमिलनाडु के मदुरै में सामने आया है.

मदुरै में नवरात्र के समय देवियों की पूजा रजस्वला न हुई लड़कियों के बहाने करने की परंपरा है. इससे मिलती जुलती कन्या पूजन की रवायत उत्तर भारत में भी होती है. मगर मदुरै में इस रस्म को निभाने का तरीका बहुत खराब है.


एनडीटीवी की खबर के मुताबिक मदुरै के मंदिर में सात लड़कियों को देवी की तरह मंदिर में बैठाया गया है. सातों बच्चियों को कमर से ऊपर कोई कपड़ा नहीं पहनाया गया है. सातों लड़कियां 15 दिन तक पुरुष पुजारी के साथ इसी हाल में रहेंगी. कमर से ऊपर गहने पहनाकर सार्वजनिक रूप से बैठाने के पीछे लोगों का तर्क है कि बच्चियों को देवी प्रतिमा की तरह सजाया गया है. ये रिवाज तमिलनाडु के 60 गांवों में जारी है

देवी पूजन के नाम पर लड़कियों को बेइज्जत करने ये लोग शायद भूल गए हैं कि इस देश में बच्चों के साथ यौन शोषण के अनगिनत मामले होते हैं. ऐसे में इस रस्म के बाद अगर किसी लड़की के साथ कुछ गलत होता है तो उसकी ज़िम्मेदारी कौन लेगा. इसके साथ ही ये सवाल भी उठता है कि आखिर क्यों एक पुरुष की देखरेख में सात लड़कियां 15 दिनों तक अर्धनग्न हालत में रहें.

मामले का संज्ञान लेते हुए इलाके के डीएम के वीरा राव ने आदेश दिया है कि सारी लड़कियों को कपड़े दिए या कम से कम तौलिये के साथ ही पूजा में लाया जाए. इसके साथ ही कोई भी व्यक्ति किसी लड़की को जबरदस्ती शामिल न करे, किसी लड़की के साथ छेड़छाड़ या असॉल्ट करने की घटना न हों.

तमिलनाडु की ये घटना इलाके में काफी समय से चली आ रही कुप्रथाओं का अवशेष है. लंबे समय तक त्रावणकोर रियासत में दलित और अब्राह्मण महिलाएं घर से बाहर निकलने पर कमर से ऊपर कपड़े नहीं पहन सकती थीं. कथित उच्च कुलों की महिलाओं को भी मंदिरों में पुरोहित या राजा के सामने जाने पर अपने कपड़े उतारने पड़ते थे.

पुजारी हाथ में एक छुरी लगी लाठी रखते थे. जिससे अपनी मर्जी से कपड़े न हटाने वाली महिलाओं के वस्त्र काट दिए जाते थे. अंग्रेजों के समय में इस पर अदालत ने रोक लगा दी थी जिस पर विवाद हुआ था.

2016 में इस पूरे प्रकरण को एनसीईआरटी की किताबों से यह कहते हुए हटाया गया था कि छात्रों को हमारी परंपराओं के इन हिस्सों को नहीं पढ़ना चाहिए. जिसके बाद काफी विवाद हुआ था.