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जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल क्या दलित विरोधी है?

आशीष नंदी ने इसी फेस्टिवल में कहा था कि देश में सबसे ज्यादा भ्रष्टतम लोग एससी-एसटी और ओबीसी वर्गों से आते हैं

Mridul Vaibhav

बाजारवाद की बुनियाद पर टिका जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल क्या दलित और अल्पसंख्यक विरोधियों का जमावड़ा नहीं है?

संघ विचारक मनमोहन वैद्य और दत्तात्रेय होसबोले के आरक्षण संबंधी बयानों और वक्तव्यों पर भड़के बवाल को लेकर इस फेस्टिवल में जो कुछ हुआ, वह पहली बार नहीं है. दलित और अल्पसंख्यकों को पहले भी इस साहित्य समारोह में निशाना बनाया जाता रहा है.


चार साल पहले 26 जनवरी 2013 को प्रसिद्ध समाजशास्त्री आशीष नंदी ने इसी फेस्टिवल में गणतंत्र दिवस के दिन हो रही एक बहस के दौरान कहा कि देश में सबसे ज्यादा भ्रष्टतम लोग एससी-एसटी और ओबीसी वर्गों से आते हैं. उन्होंने ‘मोस्ट करप्ट’ शब्द पर पर काफी जोर दिया था.

जयपुर के डिग्गी पैलेस में चल रहे इस साहित्य उत्सव में एक खास वर्ग के तरुण-तरुणियों की अपार भीड़ में आप जाकर अगर दलित, आरक्षण या अल्पसंख्यकों को लेकर कोई प्रश्न करेंगे तो वे आपकी तरफ मुस्कुरा देंगे या दयनीय भाव से देखेंगे.

जिस समय संघ विचारक मनमोहन वैद्य ने आरक्षण के औचित्य पर प्रश्न खड़े किए तो उन्होंने बेहद सफाई से कहा कि डॉ. भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि आरक्षण स्थायी हुआ तो समाज में अलगाववाद पनपेगा.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दलित आरक्षण के समर्थन में रहेगा: वैद्य

साहित्य के इस उत्सव में दुनिया भर से आए लोग शामिल हो रहे हैं और जो कोई भी अपनी बात रखता है, वह पूरी प्रामाणिकता से रखता है. ऐसे ही नहीं बोल देता.

लेकिन वैद्य या होसबोले ने डॉ. भीमराव अंबेडकर के ऐसे किसी ग्रंथ या भाषण का जिक्र नहीं किया, जिसमें कहा गया हो कि आरक्षण से अलगाववाद पनपेगा.

दत्तात्रेय होसबोले

वैद्य और होसबोले ही तरह ही आशीष नंदी ने बिना किसी प्रामाणिकता के कहा था 'मैं आपको एक उदाहरण देता हूं. देश में सबसे कम भ्रष्टाचार वाला राज्य पश्चिम बंगाल था, जब वहां माकपा का शासन था. और मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा कि पिछले सौ साल में जब तक ओबीसी, एससी और एसटी से कोई सत्ता में नहीं आया था, यह स्वच्छ राज्य था.'

उनके इस बयान पर इतना हंगामा हुआ कि मायावती और रामविलास  पासवान जैसे नेताओं ने उन्हें जेल भिजवाने तक की मांग की थी. लेकिन जब बहुत दबाव पड़ा तो उन्होंने एक विचित्र स्पष्टीकरण दिया, जिसमें कहा था कि भ्रष्टाचार ने भारतीय समाज में एक सकारात्मक भूमिका इक्वेलाइजर के रूप में निभाई है.

वैद्य और होसबोले ने अच्छा किया कि समय रहते उन्होंने स्पष्टीकरण कर दिया और कह दिया कि जब तक देश में जातिगत भेदभाव रहेगा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दलित आरक्षण के समर्थन में रहेगा.

इस तरह के स्पष्टीकरण से एकबारगी विवाद शांत हो गया, लेकिन नंदी की तरह अगर देर हुई होती तो वहां कोई आदिवासी नेता या दलित प्रतिनिधि भी पहुंच गए होते.

दरअसल लिटरेचर फेस्टिवल में इस तरह के विवाद इसलिए उछाले जाते हैं कि इनके माध्यम से साहित्य का सादा सा मेला एक ब्रैंड बनकर एक बड़े बाजार में बदल गया है. यहां लोगों के आकर्षण और सम्मोहन के लिए मयपान की भी अच्छी व्यवस्था रहती है तो विवाद प्रेमियों के लिए ऐसी बहसें भी हैं.

वामपंथी लेखकों ने जेएलएफ को दोजख घोषित किया

यहां की रातें गीत-संगीत से सुर्खरूं हैं तो मयगुसारों पर तड़पने की भी पाबंदियां नहीं हैं. आप चाहें जाम लिख सकते हैं और जब चाहें साहित्य छलका सकते हैं. आप जैसा चाहें, वैसा कार्यक्रम आपके लिए उपलब्ध है.

आप अपने जेहन में किसी फिल्मी स्टार से मिलने की ख्वाहिश लेकर आएं हैं तो वह भी है और अगर आप चाहते हैं कि ये आरक्षण-वारक्षण दलित-वलित क्या चीज है तो आपके लिए आशीष नंदी से लेकर मनमोहन वैद्य तक कई तरह के लोग मौजूद हैं.

स्वामी अग्निवेश

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल एक ऐसा मेला है, जहां उलटबांसियां बहुत करीब से देखी जा सकती हैं. स्वामी अग्निवेश शेष देश में भले शराबबंदी की मांग करते रहें और शराबबंदी के आंदोलन करें, लेकिन डिग्गी पैलेस में वे बहुत तन्मयता से बार के बीच भोजन करते देखे जा सकते हैं.

यह फेस्टिवल कुछ साल पहले जब शुरू हुआ तो राजस्थान और दिल्ली तक फैले बहुत से वामपंथी लेखकों ने इसे दोजख घोषित करते हुए देर नहीं लगाई. लेकिन अगली बार जब उन्हें इसमें वक्ता बनाया गया तो किसी को पता नहीं चला दोजख कब जन्नत में तब्दील हो गया.

सलमान रुश्दी को समारोह में बुलवाकर इतना विवाद रचा

यह जेएलएफ के प्रबंधकों की खूबी है कि वे विवादों को बहुत नियंत्रित ढंग से ही आगे बढ़ने देते हैं और जहां भी लगता है कि इससे उत्सव में कुछ दिक्कत आ सकती है, वे बड़ी सफाई से उसे टाल भी देने का माद्दा रखते हैं.

विवादों के आईने की नजाकत किसी और मालूम हो कि न हो, लेकिन जेएलएफ का प्रबंधन करने वाली टीमवर्क के संजोय रॉय को बहुत अच्छी तरह पता है. तहलका के संपादक तरुण तेजपाल इस आयोजन से गहरे जुड़े रहे हैं और उनके बिना कई सेशन नहीं हुआ करते थे.

फेस्टिवल डायरेक्टर संजोय रॉय

अंग्रेजी उपन्यासकार सलमान रुश्दी को समारोह में बुलवाकर इतना विवाद रचा गया कि यह फेस्टीवल लोकप्रियता की हदें पार करते हुए पूरी दुनिया में चर्चित हो गया.

एक बात साफ है कि यहां जो वर्ग खिंचा चला आ रहा है, उसकी खुराक में आरक्षण विरोध, दलित विरोध और अल्पसंख्यक विरोध खास बसा है.

आप लिट्रेचर फेस्टीवल को देखेंगे तो एक साथ आठ-दस सेशन चलते हुए मिलेंगे और न जाने कहां से क्या कॉन्ट्रोवर्सी उठ जाए. किसी को नहीं मालूम कि साहित्य की धीर-गंभीर चर्चा और खुली बहस के बीच कहां से क्या उठेगा. ब-ज़ाहिर उनको हयादार लोग समझे हैं, हया में जो है शरारत किसी को क्या मालूम.