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महिला दिवस स्पेशल: वैक्सिंग से केवल लड़कियों की देह के बाल ही नहीं टूटते

जब पहली बार मैने वैक्सिंग करवाई तो खून निकल आया था...

Annie Zaidi

गीता मेहता के नॉवेल 'राज' में एक राजपूत राजकुमारी है. उसके पति को उसमें रूचि नहीं.

नॉवेल में एक पारसी मोहतरमा हैं जो राजकुमारी को सिर से पैर तक गौर से देखती हैं और इस नतीजे पर पहुंचती हैं कि राजकुमारी के शरीर पर बाल ज्यादा हैं. राजकुमारी चौंकती है. उसकी बाहें बिल्कुल चिकनी है.


बचपन से ही उसके पूरे शरीर को बेसन इत्यादि से रगड़ कर तैयार किया गया है ताकि बाल ना हों लेकिन फिर भी, बाल रह ही गए. उसके चहरे पर भौंए भी जरा मोटी थीं.

मैंने ये नॉवेल कॉलेज में पढ़ा और ये चित्र मैं भूल नहीं पाई. उस दौर में मेरे अपने दोस्त वैक्सिंग और थ्रेडिंग करने की हिदायतें देते थे.

तरह-तरह के तर्क. जैसे कि वैक्सिंग औरत की जिल्द को 'अच्छा' बनाती है. थ्रेडिंग से चेहरा 'साफ' दिखता है. ये सब 'खुद का ख्याल' रखने में शामिल है. वैक्सिंग करो, शेव ना करो, शेव करने से बाल और मोटे और काले हो जाएंगे.

जब पहली बार मैने वैक्सिंग करवाई तो खून निकल आया था. मुझे आज भी उस ब्यूटी पार्लर वाली लड़की का चेहरा याद है. थोड़ा घबराई, फिर कहने लगी, 'ओहो, आपकी स्किन तो बहुत ज्यादा पतली है.

यूं ही शुरू होता है. बहुत ज्यादा बाल, बहुत पतली खाल, बहुत ज्यादा स्वतंत्रता, बहुत ज्यादा नाज़ुक, कपड़े बहुत लंबे, कपड़े बहुत छोटे, ज्यादा मोटी, ज्यादा दुबली.

लड़कियों में दर्द का अहसास यूं मारा जाता है

एक और चित्र मेरे मन में बसा हुआ है. मैं लड़कियों के हॉस्टिल में थी. हम ब्यूटी पार्लर कम ही जाते थे. इतने पैसे ही नहीं थे.

लड़कियां आपस में ही एक-दूसरे की 'साफ-सफाई', खिंचाई-पुताई कर लेती. कमरे में लड़कियां यही कर रही थी.

एक लड़की ने जो दूसरी लड़की की टांग से बालों की कतार झटके से उखाड़ी, दूसरी लड़की चीखी और बिस्तर से उछल कर बिल्कुल सीधी खड़ी हो गयी.

हम हंस दिए. पर गौर करिए – वो चीखी. दर्द से चीखी. वैक्सिंग यही है. जिस्म के रोंगटों पर,  त्वचा के नीचे के टिशू पर आघात.

जिस्म को दर्द की आदत पड़ सकती है लेकिन ये भी सच है की चाहे हम कितनी बार ही वैक्सिंग करें, वो लम्हा जब कोई पट्टी चिपका के बाल उखाड़ता है, दर्द का झटका जिस्म महसूस जरूर करता है.

हम फिर भी आदत डालते हैं. सारी फालतू बातें दोहराते हैं जो हमको सुनाई गयी थी.

अक्सर औरत और दर्द के रिश्ते के बारे में सोचती हूं. क्या ये बरदाश्त करने की आदत अच्छी है?

क्या यही रियाज, यही शिक्षा मार-पिटाई के वक्त भी काम आती है? या तब जब कोई हमारी बेइज्जती करता है, या हमें घरों में कैद करना चाहता है?

क्या फर्क है दोनो में? बस इतना ही ना कि सज्जा या 'ग्रूमिंग' के नाम पे हम खुद पैसे दे कर दर्द मोल लेते हैं? शायद इसी लिए ये दर्द गवारा है.

क्या होता है रोंगटों के चले जाने पर

वैज्ञानिक बताते हैं, शरीर के बाल का भी मकसद है. कम से कम इतना तो है ही कि बाल से त्वचा का एहसास और तीखा हो जाता है.

इंसान के छूने का एहसास हो या किसी चींटी-मकोड़े का, या हवा की सरसराहट. ये हमसे छिन जाती हैं.

कोई समझाए की जेंडर सिर्फ एक सांस्कृतिक रचना है, और हर संस्कृति में इसकी तमीर अलग ढंग से होती है, तो हम सर हिला के हामी भरते हैं.

लेकिन फिर ये कहने लगते हैं की वैक्सिंग करके हम खुद ही अच्छा महसूस करते हैं.

ये सच नहीं है. वैक्सिंग करना किसे अच्छा लगता है?

हां, वैक्सिंग करके हम खुद को आकर्षक महसूस करते हैं. हम जानते ही नहीं कि बालदार टांग या बालदार पीठ वाली औरत खूबसूरत कैसे हो सकती है.

कोई मर्द उसे प्यार से छू सकता है, हमने तो ऐसा ना देखा है ना सुना है. इसलिए, हमें ये औरत मनगढ़ंत लगती है.

उसकी कल्पना हम नहीं कर सकते क्योंकि कल्पना के शरीर से भी हर बाल उखाड़ दिया गया है. फिल्मों से, तस्वीरों से, पेंटिंग से, रंग मंच से, और आखिर सड़क से भी वो औरत गायब है.

हाल ये है, वही औरत जो शिक्षा और विरासत के हक़ के लिए लड़ती है, बराबर की मजदूरी और शहर में अपना अस्तित्व जमाने की बात करती है, शरीर के बाल के मुद्दे पर हथियार डाल देती है. जो औरत की छवि पर हावी है, उसी के आगे गर्दन झुका लेती है.

इसमें मैं भी शामिल हूं. लगता है ये लड़ाई मुझसे अकेले नहीं लड़ी जाएगी. शायद इसमें पहल मर्दों को करनी होगी.

उनकी कल्पना में, उनकी रचना में जब ऐसे औरतें पनपने लगेंगी जिनके बाल सलामत हों, तब शायद हम भी बेकार का दर्द मोल लेना छोड़ देंगे और जैसा कुदरती रूप है, उसी को आकर्षक मान लेंगे.

इलाहाबाद में जन्मी और दिल्ली में रहने वाली एनी ज़ैदी एक जानी मानी लेखक हैं.