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भारत में पिंक जैसी लाखों फिल्मों की जरूरत है

कोई समाज कितना विकसित है, यह देखना हो तो उस समाज में महिलाओं और बच्चों की स्थिति देखनी चाहिए

Krishna Kant

जिस दौरान पिंक फिल्म रिलीज हुई, सोशल मीडिया पर लोगों में बहस छिड़ गई कि 'न का मतलब सिर्फ न होता है.' महिलाओं को यह फिल्म खासकर पसंद आई क्योंकि वे जानती हैं कि उन्हें न कहने की भारी कीमत चुकानी पड़ती है.

दिल्ली की बुराड़ी में रहने वाली करुणा ने जान देकर यह कीमत चुकाई. करुणा की मौत साधारण मौत नहीं थी. कथित प्रेमी ने भरी सड़क पर कैंची से 22 बार वार करके उनकी जान ले ली.


पिंक फिल्म की मीनल अरोड़ा को हमलावरों ने जान से नहीं मारा था. फिल्म के निर्देशक को सकारात्मक संदेश देना था इसलिए स्क्रिप्ट ही ऐसी लिखी गई होगी कि लड़कियां हिम्मत दिखाकर सिरफिरों को मुंहतोड़ जवाब दे सकती हैं. असल जिंदगी में इसकी संभावना बेहद कम है.

लड़की जिस लोकेशन में अपनी जिंदगी जीती है, वहां पर हर लड़की के लिए मुंहतोड़ जवाब देना संभव नहीं लगता. जब किसी लड़की पर हमला होता है तो वह सिर्फ हमला करने वाले से नहीं डरती.

वह हमलावर के शैतानी व्यवहार के साथ-साथ अपने घर वालों से डरती है, मुहल्ले वालों से डरती है, बदनामी से डरती है, पुलिस की ओर से होने वाली बेइज्जती से डरती है, नौकरी या पढ़ाई छुड़वा दिए जाने को लेकर डरती है.

आखिर मीनल अरोड़ा के पिता भी पहला एक्शन यही लेते हैं कि मीनल को पीजी से घर भिजवा देते हैं. फिल्म की स्क्रिप्ट के मुताबिक, मीनल अरोड़ा को एक नामचीन वकील मिल जाता है.

दिल्ली की सड़क पर हमला झेल रही लड़की को कोई बचाने नहीं आता. वह कैंची के 22 वार झेल कर तड़प कर दम तोड़ देती है. हमलावर उसका फोटो खींचकर व्हाट्सअप करता है, लाश के पास नाचता है, खुद ही फोन करके पुलिस बुलाता है.

असल जिंदगी में कोई नामचीन वकील, सामाजिक कार्यकर्ता या अधिकारी किसी लड़की के साथ नहीं खड़ा होता.

भारतीय समाज में अधिकांश पुरुष की सोच उस मध्ययुग से निकली है जहां राजा को राह चलते कोई लड़की पसंद आ गई तो शाम तक सिपाही उसे उठाकर राजा के सामने पेश कर देते थे.

राजा अपनी मर्जी के मुताबिक उसे रानी, पटरानी, दासी या एक रात की वस्तु बना सकता था. स्त्री के पास न कहने का विकल्प नहीं था. वह विकल्प आज भी नहीं है.

पुरुष का अहं न का मतलब अपना अपमान समझता है और बदला लेकर रहता है. परिवार के साथ शादी के लिए बात करने आए युवक ने लड़की को तीसरी मंजिल से नीचे इसलिए फेंक दिया क्योंकि लड़की ने शादी से मना कर दिया था.

जिस दौरान पिंक फिल्म चर्चा में है, उसी दौरान राजधानी दिल्ली में महिला सुरक्षा को लेकर सभी पार्टियां एक-दूसरे पर आरोप लगा रही हैं. वे एक-दूसरे के खिलाफ प्रदर्शन कर रही हैं. इससे अपराधियों पर क्या असर हो सकता है?

अपराधी भी अपना प्रदर्शन कर रहे हैं. 20 सितंबर को एक दिन में चार महिलाओं पर हमले हुए. चारों मामले लगभग मिलते जुलते हैं. प्रेमिका ने शादी करने या रिश्ता रखने से मना किया तो सिरफिरे प्रेमियों ने उनकी हत्या कर दी.

घर में काम करने वाली एक लड़की ने प्रेम का प्रस्ताव ठुकरा दिया तो प्रस्ताव रखने वाले ने उसे चाकू से गोद कर मार डाला.

एक लड़की को उसके प्रेमी ने गोली मार दी. एक लड़की ने रिश्ते से बाहर निकलने की कोशिश की तो प्रेमी ने सरे-राह उसे कैंची घोंप-घोंप कर मार डाला.

एक और लड़की ने शादी करने से मना किया तो लड़के ने उसे तीसरी मंजिल से नीचे फेंक दिया.

इन चारों घटनाओं में एक बात कॉमन है कि अपराधी लंबे समय से लड़कियों का पीछा कर रहे थे. वे उन्हें हासिल करना चाहते थे. मना कर देना उन्हें बर्दाश्त नहीं हुआ.

दिल्ली में इस तरह की घटनाएं इतनी आम हैं कि लोगों को तब तक ज्यादा चिंता भी नहीं होती, जब तक निर्भया कांड जैसी वीभत्स वारदात न हो जाए.

यह कोई एक दिन की घटना नहीं है. दिल्ली के अखबार हर दिन ऐसे अपराधों से भरे रहते हैं. यहां महिलाओं का पीछा करने, छेड़ने, फब्तियां कसने से लेकर उन पर हमला करने या जान से मार देने की घटनाएं रोज हो रही हैं.

मजे की बात यह है कि दिल्ली की राज्य सरकार और केंद्र की भाजपा सरकार राजधानी दिल्ली में ही मौजूद है. केंद्रीय नियंत्रण वाली देश की सबसे स्मार्ट पुलिस व्यवस्था भी यहां मौजूद है. देश का सुरक्षा तंत्र, सरकार और न्यायालय भी यहीं मौजूद है.

दिल्ली में मौजूद दोनों सरकारें दो ऐसी पार्टियों की हैं जो महिला सुरक्षा को लेकर बड़े-बड़े वादे करके सत्ता में आई हैं. 20 सितंबर को अगर लड़की को भरी सड़क पर 33 बार कैंची नहीं घोंपी गई होती तो यह दिन भी सामान्य होता.

दिल्ली के लोग, दिल्ली की स्मार्ट पुलिस और हुक्मरान तब तक शांत रहते हैं जब तक कुछ वीभत्सतम न हो जाए. जब कोई ऐसी भयावह घटना सामने आती है तो नेता और पुलिस अपने बयानों में और जनता अपने-अपने टीवी के सामने कुछ देर के लिए चिंतित हो जाती है.

कहते हैं कि कोई समाज कितना विकसित है, यह देखना हो तो उस समाज में महिलाओं और बच्चों की स्थिति देखनी चाहिए. इस लिहाज से भारतीय समाज एक मध्ययुगीन, मानसिक रूप से बीमार समाज है.

जेएस वर्मा कमेटी और निर्भया एक्ट जैसी चीजों से कोई खास परिवर्तन न हुआ है, न होता दिख रहा है. इस स्त्री-विरोधी समाज के सुधार की पहल कौन करेगा?

अगर पिंक से कुछ लोगों की मानसिकता पर फर्क पड़ता हो तो भारत में पिंक जैसी लाखों फिल्मों की जरूरत है.