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इब्ने सफी : रहस्यमयी और रोमांचक कथाओं का बादशाह

इब्ने सफी ने 1952 से 1979 तक कुल 126 उपन्यास लिखे लेकिन अपने आपको कभी दोहराया नहीं

Nazim Naqvi

क्या आपने इब्ने सफी का उपन्यास ‘कुंए का राज’ पढ़ा है? इस कहानी में आपको कई दिलचस्प किरदार मिल जाएंगे. तारिक जिसकी आंखें खतरनाक थीं (कहानी के बीच में पता चलता है कि दरअसल वो सांप के जहर का नशा करता है), जिसके पास एक अजीबोगरीब नेवला था जो पल भर में बड़े से बड़े शहतीर काट कर फेंक देता था.

परवेज- एक चालीस साल का बच्चा जो घुटनों के बल चलता था, बोतल से दूध पीता था और नौकर उसे गोद में उठाए फिरते थे. वो इमारत जिसकी दीवारों से दरिंदे जानवरों की आवाजें आती थीं. वो कुआं जिससे अंगारों की बौछारें निकलती थीं. क्या कहा, आपने नहीं पढ़ा? तो हम ये कह सकते हैं की आपसे कुछ ऐसा छूट गया है जो बेशकीमती था.


लगभग तीन दशक में बिना दोहराए 126 उपन्यास लिखे

इब्ने सफी हर महीने एक नॉवेल लिखते थे. उनका पहला उपन्यास था ‘दिलेर मुजरिम’ जो साल 1952 में प्रकाशित हुआ. इसी साल उनके 10 और उपन्यास आए. 1952 से 1979 तक उन्होंने कुल 126 उपन्यास लिखे लेकिन अपने आपको कभी दोहराया नहीं. शुरूआती लेखन में उनके ऊपर अंग्रेजी नॉवेलों का असर रहा लेकिन जल्दी ही उनका कथानक पूरी तरह से हिंदुस्तानी परिवेश में रच और बस गया. फिर उपन्यास में उन्होंने ऐसे नायाब प्रयोग किये जो आज भी अनूठे हैं.

ये लेखक इब्ने सफी का इसलिए हमेशा ऋणी रहेगा क्योंकि उसका ये निश्चित मानना है कि अगर जासूसी दुनिया पढ़ने के लिए उसमें दीवानगी न पैदा हुई होती तो उसका उर्दू सीखना नामुमकिन था. पहले बड़ी बहनों से जासूसी दुनिया को सुनना फिर हिज्जे लगा-लगाकर उन्हें अकेले में पढ़ना. ये तो लेखक को बहुत बाद में आभास हुआ कि किसी भाषा को तभी आत्मसात किया जा सकता है जब उस भाषा के सहारे आप अपनी कल्पनाओं में गोते लगाने लगें.

इब्ने सफी का नाम था असरार अहमद और इलाहाबाद जिले के नारा कस्बे में 26 जुलाई, 1928 को उनका जन्म हुआ था. उस जमाने में बीए पास करना एक उपलब्धि हुआ करती थी (उन्होंने आगरा विश्वविद्द्यालय से बीए पास किया) शायद इसीलिए वो हमेशा ‘इब्ने सफी बीए’ लिखा करते थे. हालांकि शुरुआती दिनों में उन्होंने ‘असरार नारवी’, ‘सनकी सोल्जर’ और ‘तुगरल फुरगान’ नाम से भी उर्दू पत्रिका निकहत के लिए लिखा जो इलाहाबाद से निकलती थी.

असरार अहमद यानी इब्ने सफी बाद में पकिस्तान चले गए लेकिन निकहत पब्लिकेशन से उनका अनुबंध बना रहा और उनके उपन्यास हिन्दुस्तानी पाठकों तक हर महीने पहुंचते रहे. ये उपन्यास मूलतः उर्दू में छपते थे जिनका हिंदी अनुवाद प्रेम प्रकाश करते थे. उन्होंने इब्ने सफी के जासूसों के नाम हिंदी पाठकों के लिए गढ़ लिए थे.

कर्नल फरीद हिंदी में कर्नल विनोद हो गए और इमरान की जगह राजेश का बोलबाला हो गया. उनके एक और बहुत रोचक किरदार कैप्टन हमीद हिंदी में भी हमीद ही रहे. कर्नल विनोद और कैप्टन हमीद की जोड़ी ने हिंदी पाठकों के दिल में वो जगह बनाई जो आज भी अमिट है.

पाकिस्तान जाना निजी क्षति महसूस होती है

भारत-पाक विभाजन की त्रासदी अपनी जगह लेकिन उन लाखों हिंदुस्तानियों में ये लेखक भी शामिल है जिन्हें सआदत हसन मंटो, जोश मलीहाबादी और इब्ने सफी का पकिस्तान जाना, निजी क्षति महसूस होती है.

जासूसी या रहस्यमयी कथाओं की परंपरा हिंदुस्तान में भले ही न पनपी हो लेकिन अंग्रेजी और यूरोप की बहुत सी भाषाओँ में जासूसी उपन्यासों का एक लंबा इतिहास है. हमारे देश में सामाजिक, एतिहासिक और धार्मिक कथाओं का ही बोलबाला दिखाई देता है. वैसे जासूसी की बात छोड़ दीजिए, आज उपन्यास पढने-पढ़ने का रिवाज भी हमारे समाज में खत्म सा हो चला है.

मनोरंजन के नाम पर पढने से ज्यादा देखने का प्रचलन है. प्रेम-सेक्स, सास-बहू और ननद-भाभी की साजिशें ही हमारी कहानियों का हिस्सा हैं या फिर एतिहासिक कथाएं. यह सारा का सारा मनोरंजन टीवी के परदे से होता हुआ हम तक पहुंच रहा है.

ऐसे में बीते दिनों के उस मनोरंजन को सिर्फ याद कर के ही जो सिरहन सी दौड़ जाती है उसे आज की इंटरनेट पीढ़ी को बताना भी ऐसा है जैसे आप पत्थर से बात कर रहे हों. ऐसे में उस जासूसी दुनिया की बात करना, उस इब्ने सफी की बात करना जिसने 3 दशक तक अपने पाठकों के दिलों पर सिर्फ हुक्मरानी ही नहीं की बल्कि उनके बौद्धिक स्तर को भी उंचा किया.

जाने माने कथाकार नीलाभ (जिन्होंने इब्ने सफी उपन्यास-माला का संपादन भी किया) एक जगह लिखते हैं 'कहते हैं कि जिन दिनों अंग्रेजी के जासूसी उपन्यासों की जानी-मानी लेखिका अगाथा क्रिस्टी का डंका बज रहा था, किसी ने उनसे पूछा कि इतनी बड़ी तादाद में अपने उपन्यासों की बिक्री और अपार लोकप्रियता को देखकर उन्हें कैसे लगता है? इसपर अगाथा क्रिस्टी ने जवाब दिया कि इस मैदान में वह अकेली नहीं हैं, दूर हिंदुस्तान में एक और उपन्यासकार है जो हरदिल-अजीज और किताबों की बिक्री में उनसे उन्नीस नहीं है. वो उपन्यासकार है – इब्ने सफी.'

सिर्फ अगाथा क्रिस्टी की ही बात नहीं है, हिंदी के एक और बेहद सफल जासूसी लेखक सुरेंद्र मोहन पाठक का भी मानना है 'इब्ने सफी को जन्मजात रहस्यकथा लेखक कहा जाय तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. जब तक उन्होंने लिखा, इस क्षेत्र में उनसे आगे कोई नहीं था.'

उपन्यास ऐसे बिकते थे जैसे राशन की दुकान पर शक्कर

ब्लिट्ज (उर्दू संस्करण) के संपादक और मशहूर शायर ‘हसन कमाल’ अपने बचपन के लखनऊ में बिताए दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि 'जिस दिन इब्ने सफी का नोवेल दुकान पर आने वाला होता था, घंटों पहले से दुकान के सामने लाइन लग जाती थी. उनके उपन्यास ऐसे बिकते थे जैसे राशन की दुकान पर शक्कर.'

आज के समय में उपन्यास लेखन पर (खासतौर पर हिंदी में), एक प्रश्न-चिन्ह लगा हुआ है. लेकिन लोकप्रिय मनोरंजन की अगर बात की जाए तो ‘पल्प-फिक्शन’ यानी लुगदी साहित्य में जो कुछ हमारे सामने है उसमें चालू, बाजारू, या फुटपाथिया कहे जाने वाले उपन्यासों की भरमार है. ऐसे में इब्ने सफी के उपन्यासों के किरदार, उनका नैतिक आचरण, दिलकश साहित्यिक भाषा और कथानक में पाठकों को बांधे रखने की अद्भुत क्षमता सिर्फ उन्हीं के दिमाग की उपज थी.

ज़ाहिर है कि जुर्म ही वो चीज़ है जिसके इर्द-गिर्द जासूसी कहानी का ताना-बाना बुना जाता है लेकिन इब्ने सफी जासूसी कहानी के बहाने समाज की जेहनी परवरिश भी करते चलते हैं. वो खुद एक जगह लिखते हैं- 'मैं सोचता... सोचता रहा. आखिरकार इस नतीजे पर पहुंचा कि आदमी में जब तक कानून को स्वीकार करने का सलीका नहीं पैदा होगा, यही सब कुछ होता रहेगा. यह मेरा मिशन है कि आदमी कानून का एहतेराम करना सीखे और जासूसी नॉवेल की राह मैंने इसीलिए चुनी थी. थके हारे लोगों का मनोरंजन भी करता हूं और उन्हें कानून को स्वीकार करना भी सिखाता हूं.'

शायद इसीलिए इब्ने सफी ने अपनी खलनायकों पर बहुत मेहनत की. उन्होंने खलनायक डॉ. नारंग, हकीम आर्सेलानोस, अल्बोंसे, डॉक्टर दोयेगो, गेराल्ड शास्त्री और मशहूर खलनायिका थ्रेसिया जैसे अनेक किरदार गढ़े. ये सारे मुजरिम प्रतिभाशाली भी हैं और विश्वासघाती भी. ये कहानी में दोस्त बनकर भी आते हैं और कभी-कभी तो ऐसे आते हैं कि जब तक आप पर ये राज खुले कि वो खलनायक हैं, वो आपके दिल में बस चुके होते हैं.

जाहिर है ऐसा कर के इब्ने सफी बड़ी बेदर्दी से आपका दिल तोड़ बैठते हैं और एक मुद्दत के लिए उनका कथानक आपको परेशान करता रहता है.

जासूसी कहानियों लिखने के अलावा माहिर हास्य व्यंग्य और बेहतरीन शायर थे

आखिरकार 1980 में असरार अहमद उर्फ इब्ने सफी ने, उसी दिन जब उनके पाठक उनका जन्मदिन मना रहे थे, अलविदा कह कर सबको चौंका दिया. वो सिर्फ जासूसी कहानियां ही नहीं लिखते थे बल्कि एक माहिर हास्य-व्यंग्य कथाकार के साथ-साथ हरदिल अजीज शायर भी थे. चलते-चलते उनकी गजल के कुछ शेर-

रहे-तलब में कौन किसी का अपने भी बेगाने हैं

चांद से मुखड़े रश्क-ए-गजालां सब जाने पहचाने हैं

उफ्फ ये तलाशे-हुस्नो-हकीकत किस जा ठहरे जाए कहां

सहने-चमन में फूल खिले हैं सहरा में दीवाने हैं

बिल आखिर थक-हार के यारों हमने भी तस्लीम किया

अपनी जात से इश्क है सच्चा बाकी सब अफसाने हैं