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नवरात्र 2017: हम हिंदुओं का एटीट्यूट धर्म के मामलों में ‘जस्ट चिल’ वाला है

ये हिंदू धर्म ही है कि अपनी परंपरा में वो आधुनिकता को भी आत्मसात करता है

Vivek Anand

पड़ोस के देवी दुर्गा पंडाल में माता के भजन बज रहे थे. भजन के बोल में माता का भक्त अपनी देवी मैया से मिलने की गुहार कर रहा था और इसी क्रम में वो एक एक करके सबसे पूछ रहा था कि बताओ मेरी मैया कहां मिलेंगी. भजन के बीच-बीच में ‘मैया कहां मिलेगी’ वाली बातचीत दिलचस्प है. मसलन देवी दुर्गा का भक्त अपनी मैया का पता पूछने के लिए भगवान भोलेनाथ को फोन लगता है. फोन पर भोलेनाथ की आवाज गूंजती है.

भोलेनाथ- हेलो 


भक्त- हां...भोले बाबा बोल रहे हैं क्या?

भोलेनाथ- तथास्तु... 

भक्त- चंडी मैया, मनसा मैया आज कहां चली गई हैं? 

भोलेनाथ- दोनों अपने भक्तों का नजारा देखने गई हैं. 

इसके बाद भजन फिर से शुरू हो जाता है जिसके बोल हैं कि ‘मैया कहां मिलेंगी’. भक्त इसी तरह से कभी हनुमानजी को फोन लगाता है तो कभी भैंरो बाबा को. गोया कि उसने सारे भगवानों के मोबाइल नंबर अपने स्मार्टफोन में सेव कर रखे हों. सबसे यही पूछता है कि मैया कहां मिलेगी और सारे के सारे भगवान फोन पर ही मैया की जानकारी भक्त को उपलब्ध करवाते हैं.

देवी दुर्गा की श्रद्धा में गंभीरता ओढ़े चेहरों पर भी इस भजन के बोल सुनकर मुस्कान आ जाती है. भक्त और भगवान के बीच मोबाइल पर की गई ये बातचीत मजेदार है. देवी दुर्गा के भजनों में ऐसे प्रयोग भरे पड़े हैं. हर साल ऐसे प्रयोगों वाले भजन मार्केट में आते हैं. और देवी दुर्गा के पंडालों में पूरे भक्ति भाव से बजाए जाते हैं. ऐसे भजनों के बजाए जाने के बावजूद देवी दुर्गा की श्रद्धा में किसी भी तरह की कमी नहीं आती.

किसी और धर्म में ऐसी मॉर्डन प्रवृति देखने को नहीं मिलती 

किसी का ध्यान इस ओर नहीं जाता कि हिंदू धर्म की परंपरा में आधुनिकता का ऐसा प्रयोग कहीं माखौल तो पैदा नहीं कर रहा? खास बात ये है कि धार्मिक काम काजों में ऐसी मॉर्डन प्रवृति आपको किसी और धर्म में देखने को नहीं मिलेगी. आप कह सकते हैं कि बाकी के धर्म अपनी परंपरा में इतने जड़ हैं कि ऐसे प्रयोगों के बारे में सोच भी नहीं सकते. वो सब सदियों पुराने उसी ढकोसले को ढो रहे हैं जो उनके पूर्वजों ने कान में कह दी है.

ये हिंदू धर्म ही है कि अपनी परंपरा में वो आधुनिकता को भी आत्मसात करता है. तभी तो भजनों से लेकर देवी-देवताओं की प्रतिमाओं में ऐसी आधुनिक रचनात्मकता का खुलकर इस्तेमाल होता है. अभी गणपति उत्सव गया है. इसमें भी आपने गणपति की वेशभूषा में तमाम तरह के प्रयोग देखे होंगे. कहीं गणपति पुलिस की वेशभूषा में दिखे हैं तो कहीं मोदी सरकार के स्वच्छ भारत अभियान का ब्रांड एंबेसस्डर बने हुए. कोई सवाल नहीं उठाता, किसी को भी अटपटा नहीं लगता कि ऐसा करके धार्मिक परंपराओं को चोट तो नहीं पहुंचाई जा रही है.

दरअसल इसी से पता चलता है कि हिंदू धर्म वास्तविकता में कितना उदार है. पत्थर को पूजने वाले हमलोग दरअसल पत्थरदिल तो बिल्कुल भी नहीं हैं. इसलिए तो हम अपने भगवान को इंसान का रूप देकर उन्हें आम जिंदगी का हिस्सा बना लेते हैं. ऐसा नहीं होता तो गणपति को मुंबई ट्रैफिक पुलिस के वेश में सीटी बजाते हुए दिखाने वाली प्रतिमा किसे अच्छा लगता?

हमीं हैं कि ऐसा देखकर भी श्रद्धा में सिर झुका लेते हैं. फूल माला नारियल चढ़ाते हैं. विघ्न हरने की मनोकामनाएं मानते हैं और इन्हीं के भरोसे जिंदगी में हंसी खुशी की कामना लिए घर लौटते हैं. हमारी इस परंपरा से नावाकिफ इंसान यकीन करेगा कि एक ट्रैफिक पुलिस की वेशभूषा में आधा इंसान और आधा हाथी की प्रतिमा हमारी जिंदगी में सबकुछ है? हंसी-खुशी, दुख-दर्द, सफलता-असफलता, ऊंच-नीच सबमें हम इन्हीं से अपनी उम्मीदें लगाए रखते हैं.

पुलिस बने गणेश जी और एके-47 लिए भगवान राम भी हैं पसंद 

हम फूहड़ से फूहड़ गानों की तर्ज पर भजन बना लेने में सक्षम हैं और ऐसे भजन भी हमें भक्ति भाव से भर देते हैं. हम अपनी धार्मिक परंपरा में हाथ में तीर धनुष लिए भगवान राम को देखने को अभ्यस्थ हैं लेकिन अगर उनके हाथों में एके-47 भी थमा दिए जाएं तो इसे देखकर भी पुलकित हो उठते हैं. देवी दुर्गा शेर की सवारी करती हैं और अपने नौ रूपों में कभी वो नाव पर सवार होकर आती हैं तो कभी मोर पर. लेकिन कभी वो हवाई जहाज की सवारी करके भी आ जाएं तो भी हमारी श्रद्धा में रत्तीभर का फर्क नहीं आता.

भगवान शंकर-मां पार्वती और इन दोनों के पुत्र गणेश की धार्मिक कथा सुनने भर से पुण्य प्राप्ति के संदेश को आत्मसात करने वाले हमलोगों को बिल्कुल भी बुरा नहीं लगता, जब इन्हीं की धार्मिक कथा को कुछ यूं पेश किया जाता है, जिसमें मां पार्वती भगवान भोले से उनके भांग पीने की आदत को लक्ष्य करते हुए कहती हैं कि- अब हमसे न भंगिया पिसाई ये हो गणेश के पापा...अब हम घर जाइत हाई...

वो हमीं हैं जो अपने भगवान से ज्यादा खुश हो जाएं तो उनपर दो-चार चुटकुले बनाकर भी अपनी भक्तिभाव का इजहार करने की कूवत रखते हैं. मसलन-

हनुमान जी बोले- भोलेनाथ! अब मैं धरती पर नहीं रह सकता.

भोलेनाथ- क्यों?

हनुमान जी- पहले लोग लेट के माथा टेकते थे, फिर घुटने टेकने लगे, फिर लोग दूर से ही सिर को झुका के चले जाने लगे. मैं फिर भी खुश था, लेकिन अब तो घोर कलयुग आ गया है.

प्रभु! कल एक लड़की आई और हाथ हिला के बोली -

हाय! हनु,

ऐसे मुंह, क्यों फुला रखा है?

Just chill baby! 

अब लड़ने लगे हैं भगवान, भक्ति और गाय के नाम पर 

इस तरह के न जाने कितने चुटकुले हमने अपने भगवानों पर बना रखे हैं जिसे एकदूसरे को सुनाकर हंसाने का सबसे बड़ा धर्म निभाते हैं. इससे बड़ा धर्म कोई हो सकता है क्या? कि आप अपने ईष्ट देवता के ऊपर जोक बनाकर हंस भी लें और दूसरे को हंसा भी दे. यकीनन इतना बड़ा दिल किसी भी धर्म के लोगों में नहीं मिलेगा.

शायद तभी हमसे अपेक्षाएं और बढ़ जाती हैं. इसलिए बंगाल में ममता दीदी ये मान लेती हैं कि देवी दुर्गा का विसर्जन एक दिन बाद भी हो जाएगा तो क्या फर्क पड़ेगा. हम ऐसी छोटी-मोटी बातों पर अड़ने वाले लोग थोड़े ही हैं? लेकिन दिक्कत यही है. जबसे राजनीति ने धर्म का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए करना शुरू किया है हम अड़ने लगे हैं, भिड़ने लगे हैं, लड़ने लगे हैं.

हमारा उदार दिल संकीर्ण होने लगा है. मुहर्रम के नाम पर हम दुर्गा विसर्जन को मुल्तवी नहीं कर सकते. राजनीति ने हमें सिखा दिया है कि सारी उदारता का ठेका हमीं क्यों लें? हम सख्त हो रहे हैं. भगवान के नाम पर, भक्ति के नाम पर, यहां तक कि गाय के नाम पर.