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काफिर से इलाज नहीं करा सकते: दारुल-उलूम देवबंद

एक सवाल पर दारुल उलूम का जवाब चौंका देता है

Nazim Naqvi

ग्यारहवीं शताब्दी में हलाकू खान के हाथों बगदाद की तबाही के लगभग डेढ़ सौ साल पहले मुस्लिम समाज की गिरावट ने विचारकों और विद्वानों के दिमागों को विचलित करना शुरू कर दिया था. उस समय एक प्रमुख विद्वान इमाम गज़ाली (मृत्यु 1111 ई.), ने ‘इह्या उलूमुद्दीन’ (धार्मिक विज्ञानों का पुनरुद्धार) नामक एक ग्रंथ लिखा था. दरअसल यह मुस्लिम समाज की स्थिति की एक व्यावहारिक और महत्वपूर्ण समीक्षा थी और उसके पुनरुद्धार के लिए एक नुस्खा भी.

इमाम गज़ाली के मुताबिक़, ‘उलेमाओं (धार्मिक विद्वानों) की आधिकारिक संरक्षण की लालच नैतिक और सामाजिक मानकों में गिरावट के लिए जिम्मेदार थी.’ उनके कहने का सार ये था कि क़ाज़ी और मुफ़्ती जैसे आधिकारिक पदों के आकर्षण ने उन्हें न्यायशास्त्र के अध्ययन का इतना दीवाना बना दिया कि उन्होंने ज्ञान की दूसरी शाखाओं को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया.


इमाम गजाली के शब्दों में: ‘समाज में गिरावट आती गयी क्योंकि शासकों में गिरावट आई, और शासकों में गिरावट आती गयी क्योंकि उलेमाओं में गिरावट आई.’

आज एक ट्वीट देखा तो ज़रूरी लगा कि इसे अपने पाठकों तक लाना चाहिए. बाकी उनके विवेक पर छोड़ देना चाहिए कि वो इसपर कैसी और कैसे अपनी समझ बनाते हैं.

ट्वीट पर सवाल-जवाब

ट्वीट करने वाली एक महिला हैं, नाम है ‘अलीशा’, शायद पाकिस्तानी हैं. उन्होंने दारुल-उलूम, देवबंद के फतवा-विभाग से पूछे गए एक प्रश्न और उसके जवाब में मिले जवाब की स्क्रीन-इमेज को अपने ट्वीट के साथ अटैच करते हुए उपहास में लिखा – ‘एक और हीरे जैसा सवाल जो एक पाकिस्तानी ने दारुल-उलूम देवबंद से किया’ और ‘एक दयनीय सवाल और उससे भी ज्यादा बदतर जवाब.’

अब आइए उस सवाल और उस जवाब को आपके रु-ब-रु करते हैं जिसे उन्होंने अपनी ट्वीट का आधार बनाया है. मूल देखने के लिए यहां क्लिक करें.

सवाल: क्या एक मुस्लिम महिला के लिए किसी क़ादियानी/अहमदी (धर्मावलम्बी) महिला डॉक्टर से मातृत्व के मुद्दे और प्रसव के लिए परामर्श करने की अनुमति है, यह ध्यान में रखते हुए कि हम पहले ही कई मुस्लिम डॉक्टरों से निरर्थक परामर्श कर चुके हैं? सवाल को इस रोशनी में देखने कि कोशिश करें कि मेरी पत्नी गर्भ धारण करने में असमर्थ थी और एक कादयानी महिला चिकित्सक की मदद से अब वो 7 महीने की गर्भवती है. लेकिन अभी 2 दिन पहले ही हमें इस जानकारी ने चिंतित कर दिया है कि वो महिला डॉक्टर कदियानी है. मेहरबानी करके मुझे शरिया की रोशनी में बतलाइए कि क्या वह हमारे मामले को डॉक्टर के तौर पर संभाल सकती है? ये भी कि हम और कौन-से दूसरे विकल्प अपना सकते हैं?

जवाब: (फ़तवा: 224/223/N=01/1435) सभी उलेमाओं के सर्वसम्मत विचारों के मुताबिक, कादियानी काफ़िर धर्मत्यागी हैं और इस्लाम की परिधि से बाहर हैं और उनके बारे में फैसला सामान्य काफ़िर की तरह नहीं है, बल्कि यह और कठोर है. इसलिए जब आपको पता है कि महिला डॉक्टर जो आपकी गर्भवती पत्नी का इलाज कर रही है, एक कादियानी है तो आपको उसे त्याग देना चाहिए और उसके इलाज के लिए किसी अन्य महिला चिकित्सक से संपर्क करना चाहिए.

अल्लाह सबसे बेहतर जानता है

दारूल इफ्ता

दारूल उलूम, देवबंद

इस जवाब पर बहुत कुछ कहा जा सकता है, शब्दों की भरमार लगाई जा सकती है, पूर्व के कथनों का सहारा लिया जा सकता है, धर्म-ग्रंथों से टिप्पणियां एकत्रित की जा सकती हैं, लेकिन इन सबसे होगा क्या?

हैरत होती है ऐसे सवालों से

बात चाहे किसी पाकिस्तानी की हो या किसी भारतीय मुसलमान की, हैरत होती है कि लोग इस तरह के सवाल भी किसी मुल्ला, क़ाज़ी या मुफ़्ती से पूछते हैं. आज के इस युग में क्या ये मुमकिन है कि लोग धर्म और जाति या रंग देखकर अपना इलाज करवाएं. ये कौन लोग हैं जो सांस लेने का तरीका भी किसी मुल्ला-मौलवी से पूछते हैं?

कल्पना कीजिए कि जब ये सवाल देवबंद के फ़तवा-विभाग में बैठे मुफ़्ती साहिबान के सामने आया होगा तो उनकी क्या प्रतिक्रिया हुई होगी. ये कह नहीं सकते कि ऐसे सवाल क्यों पूछते हो? ये भी नहीं कह सकते कि हम इसका कोई जवाब नहीं देंगे. ये भी नहीं कह सकते कि कादियानी या अहमदी जो सामान्य काफिरों से भी बदतर हैं, उनसे इलाज कराना जायज़ है.

जवाब तो देना ही देना है क्योंकि वो मुफ़्ती हैं, इस्लामी-कानून के ज्ञाता हैं, उनका दावा है कि उनके पास दुनिया के हर मसले का हल है. वो ये कैसे कह दें कि अगर आप डॉक्टर के इलाज से संतुष्ट हैं तो उसी से इलाज करवाइए. उसकी विद्द्या का उसकी आस्था से क्या लेना-देना हो सकता है.

मज़हब का कारोबार दरअसल एक खतरनाक खेल है. सवाल पूछने वाले के सवाल पर गौर कीजिए तो अंदाजा होता है कि वो शायद जवाब नहीं चाहता बल्कि ये चाहता है कि देखें इसका क्या जवाब मिलता है.

जवाब देने वाले के लिए भी यही स्थिति है कि उसका जवाब फायदेमंद है या नहीं इससे भी ज्यादा ज़रूरी उसके लिए, ये है कि, जवाब दुरुस्त हो, जिसे पकड़ा न जा सके.

कुल मिलाकर मजहब के फिसलन भरे रास्ते पर सब चल रहे हैं. रस्ते की फिसलन दूर करने के लिए कोई तैयार नहीं है और चलना मजबूरी है.

अंधकार का ये युग तो ऐसे ही चलता रहेगा जब तक इंसान खुद उन जवाबों को ढूंढने की कोशिश नहीं करेगा जो सवाल बनकर उसे एक न खत्म होने वाली कशमकश में उलझाए रखते हैं.

मानव समाज की यही मजबूरी है कि वो खुद अपने विवेक से काम नहीं लेता और इसके लिए सहारे ढूंढता है. धर्म या मज़हब के मामले में तो ये सबसे ज्यादा देखने को मिलता है. पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही धार्मिक-मान्यताओं से उलझना उसे, समय बर्बाद करना लगता है. वो चाहता है कि अपनी तार्किक बुद्धि का इस्तेमाल किए बगैर उसे कोई बता दे कि क्या करना है ताकि उसकी खुद कि बर्बादी का इलज़ाम भी उसके सर न जाए.

ये किसी एक मज़हब या एक पंथ कि बात नहीं है. हर जगह आपको इस धर्मान्धता के दर्शन मिल जाएंगे. बस फर्क इतना है कि कुछ कम तो कुछ ज्यादा नुकसानदेह साबित होंगे. कुछ आपकी व्यक्तिगत समझ को विचलित करेंगे तो कुछ सामाजिक मानसिकता को बीमार कर देंगे.