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दाराशिकोह: इतिहास का सबसे अभागा राजकुमार

दिल्ली की डलहौजी रोड का नाम अब दाराशिकोह मार्ग होगा.

Mridul Vaibhav

दिल्ली की डलहौजी रोड का नाम अब दाराशिकोह मार्ग होगा. दाराशिकोह यानी भारतीय इतिहास का सबसे अभागा राजकुमार. एनडीएमसी के चेयरमैन नरेश कुमार ने इसकी आधिकारिक घोषणा कर दी है. पांच महीने पहले रेस कोर्स रोड को लोक कल्याण मार्ग नाम दे दिया गया था. उससे पहले औरंगजेब रोड को एपीजे अब्दुल कलाम मार्ग बनाया गया गया था.

नई दिल्ली नगर निगम में संघ परिवार के राजनीतिक दल भाजपा का शासन है. भाजपा का यह विचित्र दर्शन है कि कुछ समय पहले वह औरंगजेब मार्ग का नाम बदलकर एपीजे अब्दुल कलाम मार्ग करती है और अब वह लॉर्ड डलहौजी की स्मृति वाले मार्ग को औरंगजेब के सबसे बड़े भाई दाराशिकोह का नाम देती है.


साफ है कि भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को भी कांग्रेस की तरह विदेशी आक्रांता की पृष्ठभूमि होने के बावजूद कुछ लोग बेहद प्रिय हैं. लेकिन दारा की कहानी इतनी राेचक और दर्दआमेज है कि कलेजा तक हिल सकता है.

उपनिषदों का दीवाना या घमंडी राजकुमार?

यह सही है कि दारा में अच्छे गुणों की कमी नहीं थी. वह भारतीय उपनिषदों का दीवाना था. भारतीय दर्शन पर वह मर मिटता था. हम जब इतिहास पढ़ते हैं तो हमें बताया जाता है कि वह मितभाषी था. वह विनम्र, उदार-हृदय और हाजिरजवाब पुरुष था. लेकिन उसे बहुत नजदीक से जानने वाले कुछ लोग यह भी लिखते हैं कि वह घमंडी और आत्ममुग्ध था. वह अपने अलावा बाकी सबको मूर्ख समझता था.

अगर कोई व्यक्ति उसे सलाह देने की ग़लती कर बैठता तो वह बहुत बुरा बरताव करता था. संभव है, उसके यही गुण आज की शासन शैली में एनडीएमसी को ज्यादा भाए हों!

दारा ने बहुत बार कई अमीर-उमरा तक को डपट दिया था. उसका यही अवगुण उसकी अवनति और अकाल मृत्यु का कारण बना, क्योंकि उसे सही सूचना देने से सभी घबराते थे. उसके भाई जब उसके खिलाफ षड्यंत्र कर रहे थे तो उसके अक्खड़ स्वभाव के कारण ही उसके शुभचिंतक भी उसे सावधान करने का साहस नहीं जुटा सके.

ईसाइयों में ईसाई, हिंदुओं में हिंदू

17वीं सदी में भारत आए एक फ्रांसीसी चिकित्सक फैंक्विस बर्नियर शाहजहां के शासनकाल में लंबे समय रहे थे. वे कुछ समय के लिए दाराशिकोह के निजी चिकित्सक भी रहे थे. बर्नियर लिखते हैं कि दारा लोगों को प्रभावित करने में उस्ताद था. वह ईसाइयों में ईसाई और हिंदुओं में हिंदू बन जाता था.

कुछ चालाक हिंदू पंडित उसकी इस कमजोरी का भरपूर फायदा उठाते थे और वे उससे खूब इनाम लूटते थे. दारा ने बुजी नामक एक पादरी से लंबे समय शिक्षा ली थी. उसके तोपखाने के कुछ नौकर ईसाई थे. उनके सामने वह ऐसे पेश होता था मानो वह ईसाई हो. हिंदू सैनिकों के सामने वह हिंदू बना रहता था.

इतने सारे धर्माें के चक्कर में पड़कर उसने बहुत उलझनें बुन लीं और वह इतना विफल हुआ कि उसे अपने प्राणों तक से हाथ धोने पड़े. औरंगजेब ने जब दारा के प्राण लिये तो उसे धर्मद्रोही और धर्महीन कहकर ही लिए.

दादा जहांगीर आैर पिता शाहजहां का था लाडला

शाहजहां अपने उपद्रवी पुत्रों से सदा ही परेशान और भयभीत रहा. शाहजहां के चारों पुत्र दाराशिकोह, शाहशुजा, औरंगजेब और मुराद बख़्श आपस में कट्‌टरशत्रु की तरह पेश आते थे. लेकिन दारा अपने पिता का सबसे लाडला बेटा था. वह दादा जहांगीर का भी लाडला था.

शुजा, औरंगजेब और मुराद.

इन चार भाइयों की दो बहनें जहांआरा बेगम और गौहर बेगम थीं, जो अपने भाइयों की खेमेबंदी में पूरा हिस्सा लेती थीं.

पुत्रों की कलह से परेशान शाहजहां ने चारों को चार सूबे सौंप दिए, ताकि शांति बनी रहे. दारा को काबुल और मुल्तान का, शुजा को बंगाल, औरंगजेब को दक्खिन और मुरादबख्श को गुजरात का हाकिम बनाया गया.

बाकी सब भाई तो चले गए, लेकिन इस भ्रम के कारण कि बड़ा होने की वजह से मैं ही शाहजहां के बाद बादशाह बनूंगा, दारा ने पिता का दरबार नहीं छोड़ा. एक समय तो ऐसा आया जब पिता पुत्र दोनों का ही आसपास सिंहासन लगता.

क्रूर भी था और लंपट भी था दारा

इतिहास में कुछ मिथक दारा को बहुत उदार हृदय साबित करते हैं, लेकिन क्रूरता और लंपटता में दारा भी कम नहीं था. कहते हैं कि उसके हरम में बहुत सारी पत्नियां थीं.

एक बार तो शाहजहां भी उससे बहुत रुष्ट हो गया था. शाहजहां ने उसे एक अक्षम्य अपराध का जिम्मेदार घोषित किया था. बर्नियर पर भरोसा करें तो दारा ने वजीर सआदुल्ला खां का वध करवा दिया था.

शाहजहां इस वज़ीर को पूरे एशिया में सुयोग्य और कुशल रणनीतिकार ही नहीं, बेहतरीन कूटनीतिज्ञ भी मानता था. दारा को डर था कि बादशाह के मरने के बाद सआदुल्ला खां शुजा के सिर पर ताज रख सकता है.

यही नहीं, दारा की हृदयहीनता का एक उदाहरण यह भी है कि जिस समय शाहजहां ने औरंगजेब के लिए दक्षिण में मीर जुमला की अध्यक्षता में एक बड़ी कुमुक भेजी तो दारा ने इस डर से कि मीर जुमला औरंगजेब से जाकर न मिल जाए, मीर जुमला की पत्नी, बच्चों और उसके आत्मीय रिश्तेदारों को बंधक बनाकर दिल्ली में रख लिया.

सेना में भर्ती कर दिए थे दुकानदार और भड़भूंजे तक

बादशाह जब बीमार हुआ तो दारा दिल्ली का दरबार संभाल रहा था, लेकिन उसने अपने किसी भी भाई को बीमार पिता से मिलने नहीं दिया. ये पुत्र जब मिलने पर आमादा हुए और दिल्ली पर चढ़ आए तो शुजा के खिलाफ दारा ने अपने बेटे सुलतान शिकोह को लड़ने भेजा और खुद औरंगजेब के खिलाफ चला गया.

दारा इतिहास की सबसे बड़ी सेना लेकर गया. यहां तक कि वह छोटे दुकानदारों, मजदूरों, दस्तकारों, भांडे-बर्तन बेचने वालों और यहां तक कि भड़भूंजों तक को भी सेना में ले गया. दारा के पास कुल चार लाख सैनिक थे और औरंगजेब के पास महज चालीस हज़ार.

और जीती हुई बाजी हार गया दारा

पिता कहता ही रह गया कि तुम मत जाओ दारा, मुझे जाने दो, लेकिन पिता को नहीं जाने दिया. उधर, पुत्र जीत गया और जिस तरह वह उत्साह दिखा रहा था तो दारा को लगा कि भाइयों के साथ-साथ उसे अपने पुत्र से ही प्रतिद्वंद्विता मिल सकती है.

अपनी सेना के साथ दारा शिकोह

दारा इस युद्ध में भाई से जीती हुई बाजी हार गया, क्योंकि औरंगजेब बहुत चालाक और रणनीतिकार योद्धा था. हर किसी का अपमान की करने की दारा की आदत ने युद्ध भूमि में उसे गुमराह करवाया और जब वह हाथी पर था और युद्ध जीत चुका था और औरंगजेब के पास गिनती के सैनिक रह गए तो एक बार उससे अपमानित हो चुके खलीलुल्लाह ने कहा: हजरत सलामत, आपको फतह मुबारक. आप तो अब हाथी से उतरकर घोड़े पर बैठिए. पता नहीं, हाथी पर बैठे-बैठे कोई तीर लग गया तो हम कहीं के नहीं रहेंगे.

दारा जैसे ही हाथी से उतरा, उसके सैनिकों में दारा के मारे जाने की अफवाह फैल गई. इसका औरंगजेब ने फायदा उठाया. मानो दारा हाथी से नहीं, सिंहासन पर उतर गया. इसे उसकी अदूरर्शिता कहिए या उसका दुर्भाग्य, लेकिन दारा औरंगजेब और मुराद के हाथों हार गया.

जब दिल्ली में अपमानित कर हाथी पर निकाला गया दारा का जुलूस

दारा भारतीय इतिहास के राजकुमारों में सबसे अभिशप्त जीवन जीने वाला रहा. वह जब हार गया तो कभी मुल्तान, कभी थट्‌टा और कभी अजमेर भागा, लेकिन जीत नहीं सका.

औरंगजेब के सैनिकों ने जब उसे और उसके छोटे बेटे सिफर शिकोह के साथ पकड़ लिया तो दारा को दिल्ली में एक मरियल से बीमार और गंदे हाथी पर अपमानित करके घुमाया गया.

लोग उसे देखकर बुरी तरह हताश और क्षुब्ध हो गए. दारा के गले में न मोतियों की माला था, न शरीर पर जरबख्त और सिर पर पगड़ी थी, जो राजकुमारों के हुआ करती है. उन्हें भिखमंगों जैसे मोटे वस्त्र पहनाकर अपमानित किया गया था.

यह देखकर लोगों ने उस हाथी के साथ चल रहे शासकीय लोगों पर हमला तक कर दिया. लेकिन औरंगजेब को जब यह पता चला ताे उसने एक साजिश रचकर अपने ही भाई को बहुत क्रूर मौत मारा.

दारा का सिर कटवाकर फूट-फूट रोया औरंगजेब

एक रात जब दारा और उसका बेटा कैदखाने में अपने लिए खाना बना रहे थे तो औरंगजेब के एक गुलाम नज़ीर ने उसका सिर काटा और उसे औरंगजेब के पास भेजा.

औरंगजेब ने इसे एक थाली में रखा, उसे धुलवाया और जब यह पुष्ट हो गया कि यह दारा का ही सिर है तो वह जार-जार रोया और बोला : ऐ बदबख़्त!

औरंगजेब ने गुलामों को आदेश दिया कि वे इस दर्दअंगेज सिर को यहां से ले जाएं और पूरे जिस्म को ले जाकर हुमायूं के मकबरे में दफना दें.

हुमायूं का मकबरा

दारा के परिवार का इतना बुरा हाल हुआ कि उसके एक पुत्र को मार दिया गया, दूसरे को ग्वालियर के किले में कैद किया गया और दारा की पत्नी जान बचाने के लिए भागी. वह लाहौर तक पहुंची तो दुख इतने असहनीय हो गए कि विष खाकर आत्महत्या कर ली.

दारा को मारने वालों को भी जिंदा नहीं छोड़ा औरंगजेब ने

पीड़ा का पटाक्षेप देखिए कि औरंगजेब ने अपने ही आदेश से अपने ही भाई को अपमानित कर हाथी पर घुमाने वाले जीवन खां और उसका सिर काटने वाले गु़लाम नजीर को पहले इनाम देकर विदा किया और रास्ते में उन दोनों की गर्दनें कटवा दीं.