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ऐसी थी दारा शिकोह की आखिरी जंग, एक जूते ने उसे बदकिस्मत बना दिया

एक बड़ी सेना और गोला-बारूद के जखीरे के बावजूद औरंगजेब के सामने आखिर क्यों नहीं टिक सका दारा शिकोह

Afsar Ahmed

इस साल फरवरी में लुटियंस की एक सड़क का नाम डलहौजी रोड से बदल कर दारा शिकोह के नाम पर रख दिया गया. अप्रैल में दारा की उदारपंथी सोच को आधार बनाकर दिल्ली में एक प्रोग्राम का आयोजन किया गया. इसके पीछे एक तर्क दिया जा रहा है कि दारा औरंगजेब के मुकाबले बेहतर शख्स था. पर क्या सचमुच ऐसा था?  इतिहास के पन्ने ऐसा नहीं कहते. मुगलों की राजधानी रहे आगरा की मिट्टी में बहुत कुछ ऐसा दबा है जो इस लिहाज से हैरान कर देने वाला है.

मुगल राजकुमार दारा शिकोह बादशाह शाहजहां के बेहद करीब था और उसके अगला बादशाह बनने की पूरी संभावना थी पर ऐसा हो न सका. इसकी वजह उसका बदमिजाज,घमंडी और युद्ध कौशल में कमजोर होना रहा. दारा की हार की वजह औरंगजेब से ज्यादा वो शख्स था जिसने युद्ध के दौरान ऐन वक्त पर दारा को धोखा देकर अपनी जूतों से हुई पिटाई का बदला ले लिया. दारा की एक गलती ने उसे हिंदुस्तान की सल्तनत से दूर कर दिया. यह बात 1657 की है जब शाहजहां के मरने की अफवाह जंगल की आग की तरह फैलने लगी थी और चारों राजकुमारों ने बादशाह बनने की तैयारी कर ली थी.


बादशाह का बंटवारा

खुद अपनों का खून बहाकर तख्त पाने वाले शाहजहां को पता था कि उसकी सल्तनत में सत्ता के लिए 4 बेटों के बीच युद्ध रोकना तकरीबन नामुमकिन है. वह किसी भी तरह इस टकराव को रोकना चाहता था. शाहजहां ने अपने साम्राज्य को 4 हिस्सों में बांट दिया. शाह शूजा को बंगाल दिया गया. औरंगजेब को दक्कन यानी दक्षिण का इलाका मिला. मुरादबख्श को गुजरात दिया गया और दारा को काबुल और मुल्तान मिला.

दारा ने आगरा नहीं छोड़ा

गौर करने वाली बात है कि दारा को छोड़कर सबने अपने जिम्मेदारी संभाल ली जबकि दारा बादशाह के पास ही बना रहा. चारों ने खुद को मजबूत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. शूजा, मुरादबख्श और औरंगजेब जहां फौजी ताकत बटोर रहे थे वहीं दारा की कोशिश थी कि कैसे शाहजहां को भरोसे में लेकर सिंहासन पर कब्जा किया जाए. लंबे वक्त तक दारा और बाकी तीन भाइयों को बीच शह और मात का खेल चलता रहा. दारा ने शाहजहां को भरोसे में लेकर कई ऐसे फरमान जारी करवाए जिससे तीनों भाई दारा को लेकर अविश्वास से भर गए.

दारा ने बादशाह के कान भरे

दारा वक्त के साथ इतना मजबूत हो चुका था कि उसके लिए शाही दरबार में शाहजहां के करीब ही अपना सिंहासन बनवा लिया था. वह बादशाह की ओर से आदेश जारी करने लगा था. दारा को सबसे ज्यादा डर औरंगजेब से था. उसने एक नहीं कई बार औरंगजेब के खिलाफ फरमान भिजवाए. इससे औरंगजेब और दारा के बीच दुश्मनी और गहरी हो गई.

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दारा ने अपने पिता और बाकी भाइयों के बीच नफरत बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. वह गुप्त रूप से भाइयों को भेजे गए या फिर उनकी तरफ से आए संदेशों को शाहजहां को दिखाकर यह साबित करने की कोशिश करता रहा कि तीनों साजिश कर रहे हैं. पर गौर करने वाली बात यह है कि खुद शाहजहां को दारा शिकोह पर भरोसा नहीं था. उसे लगता था कि दारा उसे जहर देने की योजना बना रहा है. उस वक्त दारा और औरंगजेब के बीच जो पत्र व्यवहार हुआ वो खुद शाहजहां के लिए खौफ पैदा करने वाला था.

बादशाह की मौत की अफवाह फैली

इसी बीच सितंबर 1657 में शाहजहां की तबियत बिगड़ी और यह बताया गया कि उसकी मौत हो चुकी है. सारा दरबार गफलत में चला गया. आगरा की जनता में भ्रम फैल गया. कई दिनों तक दुकानें बंद रहीं. चारों राजकुमारों के बीच बादशाह बनने के लिए खुली जंग  शुरू हो गई.

दारा के लिए बादशाह ने बिछाई बिसात

शाहजहां को पता था अब खून बहने का वक्त आ चुका है. उसने अपने सबसे करीबी दो सरदारों को बुलाया. इसमें से एक का नाम कासिम खान था. कासिम शाहजहां का भरोसेमंद लेकिन दारा से बहुत नफरत करता था. उसने काफी अनिच्छा से इस जिम्मेदारी को स्वीकारा. दूसरे सरदार थे राजा जय सिंह.

दारा ने दोनों जनरलों को भरोसे में लिया. सेना के साथ जाते वक्त दारा ने उन्हें अमूल्य तोहफे दिए. शाहजहां ने दारा को सलाह दी कि औरंगजेब से निपटने में संयम का परिचय दे. औरंगजेब को एक के बाद एक कई संदेशवाहक भेजे गए लेकिन कोई लौट कर नहीं आया.

दारा की जल्दबाजी

समय जैसे जैसे आगे बढ़ रहा था दारा-औरंगजेब की भिड़ंत और निश्चित होती जा रही थी. दारा को उसके साथियों ने काफी रोका वो जल्दबाजी न करे. लेकिन दारा जिसे लगता था कि शाही खजाना, भारी सेना और पिता का साथ जब उसके साथ है तो उसे कोई नहीं हरा सकता. उसने कूच का फैसला कर लिया.

जंग के मैदान की ओर दारा का कूच

उसने पूरी सेना को तैयार होने का आदेश दिया और खुद अपने पिता शाहजहां के सामने विदाई लेने के लिए पेश हुआ. दुखी पिता ने बेटे को गले लगाया.

शाहजहां ने कहा- 'ठीक है बेटा, अगर तुमने रास्ता चुन ही लिया है तो ऊपर वाला तुम्हारी ख्वाहिशों की हिफाजत करे'. लेकिन साथ ही गंभीर होते हुए कहा- 'अगर तुम युद्ध हारते हो तो सोच लेना कि मेरा सामना कैसे कर पाओगे.' पिता की बातों से ज्यादा प्रभावित हुए बिना दारा ने आगरा से 20 मील दूर चंबल की ओर कूच कर दिया.

वहां पहुंचने के बाद दारा ने तंबू गाड़ने का आदेश दिया. लेकिन औरंगजेब तेजी से आगे बढ़ते हुए आगरा से 5 मील दूर यमुना के किनारे अपनी सेना के साथ आ चुका था. दारा को जब ये खबर लगी तो उसने जो मोर्चेबंदी की थी उसे छोड़कर वो मुकाबला करने के लिए बढ़ चला.

दोनो सेनाओं का सामना

आखिरकार यमुना तट पर दोनों सेनाएं सामूगढ़ में आमने सामने आ डटीं. सामूगढ़ को अब फतेहाबाद कहा जाता है. दोनों सेनाएं करीब तीन दिन तक एक दूसरे के सामने डटी रहीं.

दारा का अति आत्मविश्वास

इस बीच शाहजहां ने एक के बाद एक कई फरमान दारा को भेजे. सबमें एक ही संदेश था कि वह जल्दबाजी न करे और सुलेमान शिकोह का इंतजार करे. पिता की चिंता से बेपरवाह दारा ने एक ही जवाब लिखा कि 'मैं औरंगजेब और मुराद बख्श के हांथ-पांव बांधकर आपके सामने जल्दी पेश करूंगा'. वैसे भी काफी देर हो चुकी है. दारा ने औरंगजेब का मुकाबला करने के लिए काफी मजबूत व्यूह रचना की थी.

शाही सेना की व्यूह रचना

दारा ने पहली पंक्ति में भारी तोपें लगाईं थीं. जिन्हें लोहे की चेन से बांध दिया गया. ताकि दुश्मन का तोपखाना आगे न बढ़ सके. उसके पीछे ऊंटों की पंक्ति बनाई गई जिन पर हल्का बारूद लदा हुआ था. इसके पीछे शाही सेना के पैदलसवार थे. औरंगजेब और मुराद बख्श ने भी तकरीबन इसी तरह की व्यूह रचना की थी. अंतर बस इतना था कि कुछ तोपखाना औरंगजेब ने छुपा कर रखा था.

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दारा ने सेना को तीन हिस्सों में बांटा

दारा ने अपनी सेना को तीन हिस्सों में बांटा था. सामने तोपों वाला हिस्सा था. दाईं और खलीलुल्लाह खान की अगुवाई में 30 हजार की संख्या वाली शाही सेना थी. बाएं हिस्से की जिम्मेदारी रुस्तम खान दखिनी को दी गई जिसके साथ राजा छत्रसाल और राम सिंह रौतेला जैसे दो मजबूत कमांडर थे.

29 मई 1658 को युद्ध शुरू हुआ

दारा की तोपों ने पहले हमला शुरू किया. जवाब में तोपों से ही जवाब दिया गया. लेकिन कुछ ही देर में भारी बारिश होने के चलते तोपें शांत हो गईं. बारिश थमते ही तोपें फिर गरजने लगीं.

दारा युद्ध के दौरान बेहद सक्रिय नजर आ रहा था. वह घूम घूम कर अपने सरदारों का उत्साह बढ़ा रहा था. दारा अपने खूबसूरत हाथी सेलन पर सवार था. दारा शत्रुओं की तोपों की और बढ़ रहा था. उसकी योजना किसी भी तरह औरंगजेब को काबू में करने की थी.

दारा के जोश पर भारी पड़ी औरंगजेब की चालाकी

जल्द ही दारा के आसपास लाशों का अंबार लग गया. न सिर्फ सामने वालों की बल्कि उनकी भी जो उसके पीछ चल रहे थे. दारा की सेना पर बार बार हमला हो रहा था लेकिन वह तब भी शांत रहकर आदेश दे रहा था. आक्रमण बढ़ता देख तोपों को जंजीरों से मुक्त कर दिया गया. लेकिन इसके चलते शत्रुसेना पहला घेरा तोड़ने में कामयाब रही. तोपें हटते ही दोनों ओर की सेनाएं आपस में भिड़ गईं. लड़ाई भयानक होती चली गई. इस बीच ये बात गौर करने वाली है कि दारा युद्ध कौशल में औरंगजेब से कमजोर था. युद्ध के दौरान दारा की सेना में सामंजस्य का भारी अभाव दिखा.

तीरों से भरा आसमान

आसमान में तीरों की बौछार होने लगी लेकिन 10 में से 2 ही तीर निशाने पर लग रहे थे बाकी ज्यादा दूर नहीं पहुंच रहे थे. तीरों के बाद तलवारें निकाल ली गईं और युद्ध का चेहरा और स्याह हो गया.

दारा की औरंगजेब को पकड़ने की नाकाम कोशिश

जोश के साथ आगे बढ़ रहे दारा ने दुश्मन के तोपखाने को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया. युद्ध के दौरान दारा ने औरंगजेब को पकड़ने की कई कोशिशें कीं लेकिन वह सफल नहीं हो सका. औरंगजेब उससे ज्यादा दूर नहीं था. दारा जानता था कि युद्ध पूरी तरह जीता हुआ नहीं माना जा सकता जब तक औरंगजेब को न पकड़ा जाए. लेकिन दारा की ये बदकिस्मती थी कि उसे पहली बुरी खबर उसके बाएं छोर से आई. उसके बाएं छोर की मोर्चेबंदी कमजोर पड़ रही थी. उसे अपने भरोसेमंद सिपहसलारों से पता चला कि रुस्तम खान और छत्रसाल मारे जा चुके हैं.

बहादुर राम सिंह रौतेला की मौत

उसके बाद राम सिंह रौतेला ने बहादुरी दिखाते हुए शत्रु की घेरेबंदी को तोड़ दिया. दारा ने तब औरंगजेब को पीछ धकेलने का विचार छोड़ दिया. दारा बाएं छोर की ओर बढ़ा और जबर्दस्त लड़ाई के बाद शत्रु को बाएं छोर से पीछे धकेल दिया.

इस बीच राजा रौतेला ने जोरदार युद्ध करते हुए राजकुमार मुराद बख्श को घायल कर दिया। वह उनके हाथियों के बेड़े के करीब पहुंच गया लेकिन मुराद बख्श ने उसकी इस कोशिश को नाकाम कर दिया. मुराद चारों तरफ से शाही सेना से घिर गया लेकिन उसने हथियार नहीं डाले. इस बीच एक तीर सीधे आकर रौतेला को लगा और उसकी मौत हो गई.

दगाबाज खलीलुल्लाह खान

अब सिर्फ एक ही उम्मीद थी कि किसी तरह औरंगजेब को भागने पर मजबूर कर दिया जाए लेकिन एक धोखे ने ऐसा करने से मजबूर कर दिया. दाएं छोर की कमान संभाल रहे खलीलुल्लाह खान की 30 हजार की सेना जो अकेले औरंगजेब का सामना कर सकती थी चुपचाप खड़ी थी. खलीलुल्लाह दारा को यह भरोसा देने कीशिश कर रहा था कि समय आने पर वह हमला करेंगे पर ऐसा हुआ नहीं.

दारा ने जूतों से पीटा था खलीलुल्लाह को

कुछ साल पहले दारा ने खलीलुल्लाह खान की जूतों की पिटाई कर बेइज्जती की थी. इस नाजुक घड़ी में खलीलुल्लाह ने अपनी बेइज्जती का बदला धोखा देकर ले लिया. खान ने बहाना बनाया कि उसकी सेना बाद में हमला करेगी. हालांकि उसका ऐसा करना कोई साजिश नहीं लग रहा था.

दारा का हाथी से उतरना

दारा उसके बिना ही युद्ध जीतने में सक्षम था. खान को इस बात का अंदाजा था इसलिए दारा की हार सुनिश्चित करने के लिए उसने अपने छोर को छोड़कर कुछ साथियों को साथ लिया और दारा के करीब पहुंचा. दारा उस वक्त बुरी तरह घिरे मुराद बख्श को पकड़ने के लिए आगे बढ़ रहा था.

दारा के करीब जा कर खलीलुल्लाह बोला - 'मुबारक बाद हजरत सलामत अलहम्दो लिल्लाह, आप खुश रहें, आपका स्वास्थ्य ठीक रहे, जीत आपकी ही होगी. लेकिन मेरे सरकार आप अब भी इस बड़े हाथी पर क्यों सवार हैं? क्या आपको नहीं लगता कि आप खतरे में पड़ सकते हैं? खुदा न करे इतने सारे तीरों में से कोई तीर या बारूद का गोला आप पर गिरा तो क्या होगा?'

खलीलुल्लाह की बातों में फंस गया दारा

खलीलुल्लाह ने दारा से आगे कहा कि 'सरकार तेजी से घोड़े पर सवार हों और घिर रहे मुराद बख्श को भागने से पहले पकड़ लें'. दारा खलीलुल्लाह की बातों में आ गया और तुरंत अपनी जूतियां पहने बिना ही नंगे पैर घोड़े पर सवार हो गया.

शाही सेना का भागना

करीब 15 मिनट बाद ही उसने खलीलुल्लाह खान के बारे में मालूम किया लेकिन वो मौके से जा चुका था. दारा ने उसे मार देने की बात कही लेकिन खलनायक हाथ से निकल चुका था. हाथी के हौदे में राजकुमार दारा को न देख शाही सेना में यह अफवाह फैल गई कि राजकुमार मारा गया.

और इतिहास बदल गया

कुछ ही मिनट में सेना में हर कोई औरंगजेब के डर से भागने लगा. औरंगजेब अभी भी अपने हाथी पर सवार था. अगले कुछ पलों में पूरा दृश्य बदल गया. औरंगजेब हिंदुस्तान का बादशाह बन चुका था. दारा को वहां से भागना पड़ा. बाद में दारा पकड़ा गया और मार दिया गया.

( संदर्भ- ट्रैवल्स इन द मुगल एंपायर, फ्रांसिस बर्नियर )