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27 दिसम्बर, ग़ालिब-वर्षगांठ पर विशेष- पूछ लो ग़ालिब से, ग़ालिब कौन है?

मैंने मित्र से कहा, ‘पूछ लो ग़ालिब से कि ग़ालिब कौन है?’ मित्र सामने बैठे ग़ालिब के स्टेच्यू से नज़र हटाये बग़ैर बोले, ‘ग़ालिब आधा मुसलमान था’.

Nazim Naqvi

25 दिसंबर की ठिठुरन भरी शाम में माता सुंदरी लेन पर बने ‘ग़ालिब इंस्टिट्यूट’ या ‘ऐवाने ग़ालिब’ (एक ही संस्थान के दो नाम) के गेट से घुसते ही सामने असदुल्ला खां ‘ग़ालिब’ की मूर्ति गाव-तकिया के सहारे बैठी मिली. यह मूर्ति हर आने वाले का इस्तेकबाल कर रही है, पास ही रक्खी ‘सुराही’ को भी इतना बड़ा बनाया गया है कि ग़ालिब पर नज़र पड़े तो सुराही अपने आप नजर में समां जाए.

मैंने साथ खड़े अपने एक मित्र से कहा, ‘पूछ लो ग़ालिब से कि ग़ालिब कौन है?’ मित्र जो सर्दी की वजह से अकड़े हुए हैं...अपने दोनों हाथ पतलून में फंसाए, सामने बैठे ग़ालिब के स्टेच्यू से नज़र हटाए बगैर बोले, ‘ग़ालिब आधा मुसलमान था’.


मुझे वो किस्सा याद आ गया जब एक अंग्रेज ने ग़ालिब से टूटी-फूटी हिंदुस्तानी में पूछा, ‘टुमारा नाम क्या होता?’

ग़ालिब ने जवाब दिया,  ‘मिर्जा असदुल्ला खां ग़ालिब उर्फ़ नौश’

अंग्रेज: ‘टुम लाल किला में जाता होता था?

ग़ालिब; ‘जाता था मगर जब बुलाया जाता था.’

अंग्रेज: ‘क्यों जाता होता था?’

ग़ालिब: ‘अपनी शायरी सुनाने - उनकी गज़ल बनाने.’

अंग्रेज: ‘यू मीन टुम पोएट होता है?’

ग़ालिब: ‘होता नहीं, हूं भी.’

अंग्रेज: ‘टुम का रिलिजन कौन सा होता है?’

ग़ालिब: ‘आधा मुसलमान.’

अंग्रेज़: ‘व्हाट! आधा मुसलमान क्या होता है?’

ग़ालिब: ‘शराब पीता हूं लेकिन सुअर नहीं खाता.’

काश ऐसा ही होता कि लोगों का खान-पान ही उनके मज़हब की पहचान होता. हर वो आदमी जो न शराब पीता हो और न ही सूअर खाता हो, वो मुसलमान कहलाता. जो मांस न खाता वो हिंदू हो जाता और जो सूअर खाता, ईसाई कहलाता.

एक बार ग़ालिब के किसी हिंदू दोस्त ने बर्फी देते हुए संकोच में पूछ लिया, ‘कहीं आपको हिंदू के यहां की बर्फी से परहेज तो नहीं?’  ग़ालिब ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया, ‘आज मालूम हुआ कि बर्फी हिंदू भी होती है, गोया जलेबी मुसलमान हुई.’

बताते चलें कि अपने सबसे अजीज शागिर्द, आगरा के मुंशी हरगोपाल तफ्ता के लिए खुद वो एक खत में लिखते हैं,  ‘मुझको इस बात पर नाज है कि...मैं हिंदुस्तान में एक दोस्त-ए-सादिक़-अल-विला रखता हूं जिसका नाम 'हरगोपाल' और तख़ल्लुस ‘तफ्ता’ है.’

मिर्ज़ा ग़ालिब खुद का परिचय आधे मुसलमान और आधे हिंदू के रूप में दिया करते थे

गुलज़ार यानि ग़ालिब के तीसरे मुलाज़िम

आज के मशहूर फिल्मकार और गीतकार ‘गुलज़ार’  जिन्होंने ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ जैसा कभी न मिटने वाला धारावाहिक इस देश को दिया, अपने आपको ग़ालिब का तीसरा नौकर कहते हैं. वो कहते हैं,  ‘ग़ालिब के यहां तीन मुलाज़िम थे-एक वफादार थी जो तुतलाया करती थी, दूसरे कल्लन थे जो बाहर का सौदा-सब्जी लाते थे और ग़ालिब की बोतलें संभालते थे और तीसरा मुलाज़िम मै हूं. वो सारे तो वक़्त के साथ रिहाई पा गए बस मैं अभी तक ग़ालिब की मुलाज़मत में हूं.‘

तो साहब हम यहां ग़ालिब इंस्टिट्यूट आए हैं एक नाटक देखने, ‘ग़ालिब-बुद्ध और शायर’. ग़ालिब के साथ बुद्ध की कल्पना इसके प्रति खिंचाव का कारण है. इंस्टिट्यूट के नौजवान डायरेक्टर रज़ा हैदर बताते हैं कि इंस्टीट्यूट का नाटक ग्रुप ‘हम-सब’ हर साल आज ही के दिन ग़ालिब पर एक नाटक का मंचन करता है. इस बार का नाटक जाने-माने रंगकर्मी अशोक लाल ने निर्देशित किया है, लिखा भी उन्होंने ही है. अशोक लाल हरगोपाल ‘तफ्ता’ के वंशजों में से हैं, इसलिए ग़ालिब से उनकी मुहब्बत अलग खुशबू रखती है.

हालांकि नाटक कई बार बुद्ध के दर्शन और ग़ालिब के अद्ध्यातमवाद के बीच रिश्ता बनाने में गूढ़ भी हुआ लेकिन उसने दिलचस्पी का दामन नहीं छोड़ा. बुद्ध, ग़ालिब, और शायर के अलावा शायर के बेटे के माध्यम से नाटक में आज के नौजवान का चित्रण मजेदार है.

शायर अपने बेटे (कबीर) से पूछता है ‘इतनी रात गए बाहर कहां जा रहे हो’, लेकिन बेटा इस बात से खीजा हुआ है कि एक जवान बेटे से कैसा बेढंगा सवाल पूछा जा रहा है. कहता है- ‘हम वहां जा रहे हैं ग़ालिब....जहां से तुमको मेरी ख़बर नहीं आएगी.’

उसी बेटे को जब इश्क हो जाता है तो ग़ालिब जो उसके लिए पैरोडी जैसा है, अर्थपूर्ण हो गया है. अब बेटा ग़ालिब के शेरों का सहारा लेकर अपने इश्क का इजहार कर रहा है.

अशोक लाल का गेटअप कमाल का है. नाटक के बाद उनके साथ सेल्फी खिचवाने वालों की भीड़ इसका सुबूत है. रज़ा हैदर अपने ग्रुप द्वारा किए गए कामयाब मंचन पर मुस्कुरा रहे हैं. ‘रहिए अब ऐसी जगह चलकर, जहां कोई ना हो.’  सुरैया की आवाज में ग़ालिब की ये ग़ज़ल अभी तक गूंज रही है.

ग़ालिब सिर्फ अपने युग (27 दिसंबर 1796 – 15 फरवरी 1869) में ही नहीं आने वाले कई शताब्दियों पर, अपने नाम की ही तरह ग़ालिब हैं. ग़ालिब का मतलब होता है जिसका दबदबा हो. इतिहास की किताबों से नहीं बल्कि ग़ालिब की चिट्ठियों से, उनकी शायरी से पता चलता है कि डेढ़ सौ या दो सौ साल पहले हिन्दुस्तान में अलग-अलग धर्मों, नस्लों,  जातियों और रंगों के लोग कैसे मिलजुल कर एकसाथ एक होकर रहते थे.

डेढ़ सौ साल पहले धर्मनिरपेक्षता के प्रतीक

मशहूर लेखक, निर्देशकऔर कवि गुलज़ार की ज्यादातर रचनाएं ग़ालिब से प्रेरित हैं

आज का हिंदुस्तान ग़ालिब से ये सीख सकता है कि उस जगह जीवनयापन कैसे करना चाहिए जहां लोगों की मान्यताओं, विचारों और बर्ताव में भिन्नता हो. ग़ालिब के बर्ताव में धर्मनिरपेक्षता थी और ये कोई सियासी जुमला नहीं था बल्कि इस देश में जीने का सबसे हसीन तरीका था.

आज पूरी दुनिया में और विशेषकर हिन्दुस्तान में ग़ालिब के चाहने वाले वही लोग हैं जो धर्मनिरपेक्ष हैं. लेकिन ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को सियासी जबान ने इस्तेमाल कर-कर के इतना बदबूदार बना दिया है कि सड़ांध आने लगी है इस शब्द से. आज जब भी कोई इसे बोलता है तो लगता है मानो झूठ बोल रहा है.

क्या ऐसा नहीं हो सकता कि दिल से ‘धर्मनिरपेक्ष-भारत’ बनाने वाले ये कहने लगें कि वह ग़ालिब का भारत बनाना चाहते हैं. फलां व्यक्ति धर्मनिरपेक्ष है की जगह ये कहा जाने लगे कि वो शख्स ‘गालिबिया’ लगता है तो कैसा हो?

मिर्ज़ा असदुल्लाह खां ग़ालिब के व्यक्तित्व में अहम बहुत था लेकिन ये नकारात्मक नहीं बल्कि सकारात्मक था. इसे आप आत्माभिमान भी कह सकते हैं क्योंकि वह एक ऐसे माहौल में जिसपर फ़ारसी भाषा का दबदबा था, वहां उर्दू में शायरी करते थे.

उर्दू उस समय आम लोगों की ज़बान थी और ग़ालिब जानते थे कि इस ज़बान की पैदाइश और परवरिश इसी मिट्टी में हुई है. ये भाषा जवान होगी तो आने वाले ज़मानों तक मेरे संदेशों को पहुंचाएगी.

ग़ालिब को इस दुनिया से गए लगभग 147 बरस हो गए, इस अरसे में सैकड़ों शायर आए-गए लेकिन कोई ग़ालिब ना हो सका. ग़ालिब होना इसी को कहते हैं.