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पुण्यतिथि विशेष: आज भी नहीं सुलझी है बिरसा मुंडा की मौत की गुत्थी

9 जून को भगवान बिरसा मुंडा की पुण्यतिथि है

Ravi Prakash

8 जून की दोपहर रांची के डिस्टिलरी पुल के पास हलचल थी. यहां बिरसा मुंडा की समाधि पर लोग फूल चढ़ा रहे थे. समाधि स्थल की पवित्र मिट्टी एकत्र की जा रही थी. ताकि, 9 जून को उसे एदलहातू (बुंडू) ले जाया जा सके. इस मिट्टी का उपयोग पत्थलगड़ी और भूमि पूजन में होगा. क्योंकि अदलहातू के प्रधान नगर में भगवान बिरसा की 150 फीट ऊंची प्रतिमा लगाई जानी है. इसे स्टैच्यू आफ उलगुलान कहा जाएगा. यह बिरसा मुंडा की दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा होगी.

9 जून को है बिरसा की पुण्यतिथि


दरअसल, 9 जून को भगवान बिरसा मुंडा की पुण्यतिथि है. इसी कारण भूमि पूजन के लिए यह तारीख चुनी गयी. इसी दिन साल 1900 में बिरसा ने रांची जेल में मात्र 25 साल की उम्र में अपनी अंतिम सासें ली थीं. तब ब्रिटिश सरकार ने उनकी मौत का वजह हैजा से पीड़ित होना बताया था. लेकिन, लोग मानते हैं कि अंग्रजों ने उन्हें जहर की सुई दे दी थी. आज उनके देहांत के 117 साल बाद भी यह रहस्य कायम है कि आखिर इतनी छोटी उम्र में उनकी मौत किस कारण से हुई.

उलिहातू में हुआ था जन्म

तब छोटानागपुर का इलाका बिहार का हिस्सा था. भारत में ब्रिटिश हुकूमत थी. ईस्ट इंडिया कंपनी अपने विस्तार में लगी थी. साल 1875 के 15 नवंबर को तत्कालीन रांची (अब खूंटी) के उलिहातू गांव में सुगना मुंडा के घर बेटे ने जन्म लिया. उस दिन बृहस्पतिवार था. सो, सुगना मुंडा और उऩकी पत्नी करमी हातू ने अपने बेटे का नाम बिरसा रखा. (मुंडारी में बिरसा का मतलब बृहस्पतिवार होता है) तब उन्हें शायद ही पता हो कि उनका बेटा भविष्य में आदिवासियों का सबसे बड़ा नेता बनने वाला है. लेकिन, ऐसा हुआ और लोग उनमें भगवान की छवि देखने लगे. न केवल झारखंड बल्कि पूरे देश के आदिवासी आज भी उन्हें भगवान मानते हैं.

गरीबी में बचपन, ईसाई भी बने

सुगना मुंडा का परिवार गरीब था. घर चलाने के लिए वे मजदूरी करते थे. उन्हें अपना गांव भी छोड़ना पड़ा था. लिहाजा, बिरसा अपने मामा के घर भेज दिए गए. ताकि उनकी पढ़ाई मे दिक्कत नहीं हो. कुछ साल वहां रहने के बाद बिरसा मुंडा को बेहतर पढ़ाई के लिए चाईबासा के जर्मन मिशन स्कूल में भेज दिया गया. वहां नामांकन की शर्त थी ईसाई होना. इस कारण उन्हें ईसाई बनना पड़ा. स्कूल में उनका नाम बिरसा डेविड रख दिया गया.

विद्रोही बिरसा

वहीं पढ़ते हुए बिरसा ने आदिवासियों पर हो रहे जुल्म को करीब से समझा. उन्हें इस बात का मलाल था कि ब्रिटिश सरकार आदिवासियों की जमीन हथियाना चाहती है. इनके धार्मिक मामलों में भी दखल दिया जा रहा है. ऐसे में बिरसा कब तक टिकते. महज चाल साल की पढ़ाई के बाद 1890 में उन्होंने उस जर्मन स्कूल और ईसाई मिशिनरी से नाता तोड़ लिया. उनका परिवार कोल्हान इलाके मे चल रहे सरदारों के आंदोलन से प्रभावित था. 1893-94 मे पोड़ाहाट के जंगलों में बिरसा मुंडा ने सरदार विद्रोहियों के साथ 1882 मे बने अंग्रेजों के वन कानून का पुरजोर विरोध किया. 1895 में उन्हें पहली बार गिरफ्तार किया गया. उन्हें 2 साल की सजा हुई.

जब बिरसा बने भगवान

उस समय छोटानागपुर-कोल्हान इलाके में भूखमरी व अकाल की स्थिति थी. हजारों लोग चेचक से पीड़ित थे. इससे विचलित बिरसा ने जेल से निकलने के बाद लोगों की सेवा की. लोग उन्हें ओझा के रुप मे जानने लगे. उनसे मिलने और उन्हें देखने आने वालों की भीड़ बढ़ने लगी. उन्होंने दावा किया कि वे देवदूत हैं और अंग्रेजों की गोली उन्हें नहीं मार सकती. इससे प्रभावित होकर लोग उन्हें देवता मानने लगे. बिरसाइत धर्म में शामिल होने वालो की संख्या हजारों में पहुंच गयी. उन्हें धरती आबा कहा जाने लगा. उन्होंने लोगों को धर्मांतरण से रोका और आदिवासी धर्म परंपरा का पालन करने की सीख दी.

उलगुलान

ब्रिटिश हुकूमत महारानी विक्टोरिया की हीरक जयंती मनाने के लिए समारोहों के आयोजन में व्यस्त थी. तभी बिरसा मुंडा ने नारा दिया- ‘आबुआ राज सेतेर जना, महारानी राज तुंडु जना.’ मतलब अब क्वीन विक्टोरिया का राज नहीं है. हमारे इलाके पर हमारा राज है. बिरसा मुंडा ने गुरिल्ला आर्मी बनायी और अंग्रेजी सरकार के खिलाफ बड़ा आंदोलन कर दिया. इतिहास इसे उलगुलान कहता है. इस कारण 3 मार्च 1900 को बिरसा मुंडा चक्रधरपुर के पास के जंगल से दोबारा गिरफ्तार कर लिए गए. उऩके साथ 450 से भी ज्यादा गुरिल्ला विद्रोही गिरफ्तार किए गए. बिरसा को रांची जेल लाया गया. यहीं पर 9 जून को उनकी मौत हो गयी.

बिरसा के वंशज

बिरसा मुंडा के पैतृक गांव उलिहातू में उनकी जन्मस्थली पर सरकार ने स्मारक बना रखा है. जिस कमरे में उऩका जन्म हुआ, वहां उनकी मूर्ति लगी है. बिरसा के परपोते सुकरा मुंडा इसकी देखरेख करते हैं. उन्होंने फ़र्स्टपोस्ट हिंदी को बताया कि सरकार ने उनके गांव को उपेक्षित कर रखा है. लोग सिर्फ बिरसा की जयंती और पुण्यतिथि पर ही उलिहातू आते हैं. वे मानते हैं कि झारखंड की रघुवर दास की सरकार भी आदिवासियों के खिलाफ काम कर रही है. सुकरा मुंडा ने कहा कि सरकार को सीएनटी-एसपीटी एक्ट में प्रस्तावित संशोधन को वापस लेना चाहिए.

कम हो रहे आदिवासी

जिस झारखंड इलाके में बिरसा मुंडा ने आदिवासियों की बदौलत उलगुलान जैसा आंदोलन किया, आज उसी झारखंड में आदिवासियों की संख्या लगातार घट रही है. इससे चिंतित पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने फर्स्टपोस्ट हिंदी से कहा कि सरकार को देकना चाहिए कि ऐसा क्यों हो रहा है. उन्होंने बताया कि 1931 में झारखंड इलाके में आदिवासियों की जनसंख्या कुल आबादी का 38.06 फीसदी थी. 2011 में यह हिस्सेदारी घट कर 26.02 फीसदी रह गयी. इसी तरह 2001 में यहां के 3317 गांवों में 100 फीसदी आबादी आदिवासियों की थी. जबकि 2011 में शत-प्रतिशत आदिवासी आबादी वाले गांवों की संख्या सिर्फ 2451 हो गयी. बिरहोर, असुर और पहाड़िया जैसी आदिवासी जनजातियां तो अब नाम मात्र की ही बची हैं. अगर सरकार ने समय रहते इसपर ध्यान नहीं दिया तो स्थिति और खराब होने वाली है. मरांडी ने कहा कि यह आदिवासियों के खिलाफ बड़ी साजिश है.