भारत में कुछ हिंदू राजनेता अपनी राजनीति को चमकाने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को खूब गालियां देते हैं ताकि मुसलमानों का समर्थन मिल सके. उर्दू अखबार 'रोजनामा इंकलाब' के 4 अक्टूबर के अंक के अनुसार, मराठा सेवा संघ (एमएएस) के नेता श्रीमंत शिवाजी कोकाटे ने मुसलमानों से कहा- ‘इस देश को सबसे बड़ा खतरा आरएसएस और ब्राह्मणवाद से है. कोशिश की जाती है कि 75 प्रतिशत हिंदू 15 प्रतिशत मुसलमानों से डरें.’ लेकिन कोकाटे भी तो यही कर रहे हैं. मुसलमानों को डरा रहे हैं.
कोकाटे ने यह बयान तीन अक्टूबर को मौलाना आजाद विचार मंच की तरफ से मुंबई के हज हाउस में कराए गए एक कार्यक्रम में दिया. कुछ हमले हुए हैं जो मुसलमानों ने नहीं किए, बल्कि उनमें कुछ कट्टरपंथी हिंदू शामिल थे, लेकिन उन्होंने तो खास तौर से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर बम धमाके कराने का आरोप लगाया. मुसलमानों की भावनाओं का फायदा उठाने के लिए उन्होंने कहा- ‘जो यह कहते हैं कि मुसलमान तलवार के दम पर भारत आए, वे लोग गुमराह कर रहे हैं.. मुसलमानों के साथ हमारा खून का रिश्ता है. भारत के मुसलमान बाहर से नहीं आए हैं. इस वजह से उन्हें भी आरक्षण मिलना चाहिए.’
महज राजनीतिक औजार
कोकाटे की दलील यह है कि, मुसलमानों को आरक्षण मिलना चाहिए क्योंकि वे बाहर से नहीं आए हैं. इस आधार पर फिर सभी भारतीयों को आरक्षण मिलना चाहिए. कोकाटे जैसे नेता मुसलमानों में आरएसएस का डर पैदा किए बिना ना अपनी राजनीति को आगे बढ़ा सकते हैं और ना ही चुनाव जीत सकते हैं. भारत में इस किस्म के नेता खाद्य सुरक्षा, 24 घंटे बिजली, सबके लिए नौकरियां, हर दरवाजे के सामने सड़क और 18 साल से कम से बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा की कभी मांग नहीं करते.
इस तरह के नेताओं के लिए आरएसएस और मुसलमान एक सियासी औजार हैं. इन नेताओं में कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी शामिल हैं जो अपने इस बयान के लिए सुर्खियों में रहे हैं कि आरएसएस के लोगों ने महात्मा गांधी की हत्या की. राहुल गांधी की इतिहास या सच में कोई दिलचस्पी नहीं है. वह पहचान से जुड़ी उसी राजनीति की फसल बो रहे हैं, जिसके चलते 1947 में भारत का बंटवारा हुआ था. उन्होंने ट्रिनिटी कॉलेज से डिवेलपमेंट स्टडीज में एमफिल की डिग्री हासिल की है लेकिन वह धर्म आधारित राजनीति को छोड़ने के काबिल नहीं बन पाए हैं.
खास वजहों के चलते कोकाटे जैसे हिंदू नेता और जमीयत उलेमा ए हिंद और ऑल इंडिया मलजिस ए इत्तेहाद उल मुसलमीन (एआईएमआईएम) के नेता मुसलमानों को यह नहीं बताते कि अन्य पिछड़ा वर्ग के मुसलमान समुदायों को पहले से ही नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण मिल रहा है. वे इस्लाम में विश्वास में करने वाले सारे मुसलमानों के लिए कोटा मांग रहे हैं, न कि सिर्फ मुसलमानों में ओबीसी समुदायों के लिए.
कहां है, इस्लाम की समानता
हज हाउस की मीटिंग में, कांग्रेस सांसद और मौलाना आजाद विचार मंच के अध्यक्ष हुसैन दलवाई ने घोषणा की, ‘हमारा सिर्फ एक ही मिशन है और वह है मुस्लिम आरक्षण.’ जानी मानी सामाजिक कार्यकर्ता सुशीला ताई भी इस मौके पर बोलीं और उन्होंने भी मुसलमान आरक्षण का समर्थन किया. उन्होंने कहा, ‘अगर मुसलमान एक जिंदा राष्ट्र (कौम) हैं, उन्हें उठ खड़ा होना चाहिए और अपने हक छीन लेने चाहिए.’
सुशीला ताई के लिए भारत एक राष्ट्र नहीं है बल्कि मुसलमान एक राष्ट्र हैं. ऐसे हिंदू नेताओं के लिए इस्लाम ही उनकी राजनीति की कसौटी है. उनके लिए, हर उस व्यक्ति को आरक्षण मिलना चाहिए जो इस्लाम में विश्वास करता हो.
इस तरह के नेता असल में हिंदू इस्लामी कट्टरपंथी है, क्योंकि उनकी राजनीति इस्लाम के हितों को आगे बढ़ाने के इर्द गिर्द घूमती है, न की मुसलमानों की तरक्की के लिए.
ठीक इसी कारण से महात्मा गांधी ने 1920 के दशक में खिलाफत की राजनीति का समर्थन किया था. ‘खिलाफत’ की राजनीति आज भी जारी है. खासतौर से महाराष्ट्र में, जहां उर्दू अखबार आजकल ऐसी खबरों से भरे पड़े हैं जिनमें मुसलमानों के लिए आरक्षण की वकालत की गई है, न कि सिर्फ मुसलमान ओबीसी के लिए.
इस्लामी विद्वान हमें बताते हैं कि इस्लाम समानता सिखाता है. लेकिन जमीयत उलेमा ए हिंद भारत में एक सांप्रदायिक संगठन के तौर पर उभर रहा है. हाल के सालों में महाराष्ट्र में उसके नेता मुसलमानों के लिए आरक्षण या जेलों में बंद निर्दोष मुसलमान युवाओं को इंसाफ दिलाने की मांग को लेकर सुर्खियों में रहे हैं. अगर इस्लाम समानता सिखाता है तो जमीयत उलेमा ए हिंद को सिर्फ मुसलमानों के लिए नहीं बल्कि जेलों में बंद सारे निर्दोष कैदियों के लिए इंसाफ और सभी भारतीयों के लिए आरक्षण मांगना चाहिए. जमीयत उलेमा ए हिंद की तरफ से इस तरह की राजनीति भारतीय समाज को एक मिनी-बंटवारे की तरफ ले जा रही है.
मुसलमानों से दुश्मनी?
4 अक्टूबर के रोजनामा इंकलाब में ही कोटा की राजनीति पर एक और छह कॉलम की रिपोर्ट थी. इसके मुताबिक धुले में जामा मरकज मस्जिद के चौक में एक बैठक हुई, जिसमें सामाजिक कार्यकर्ताओं और विभिन्न इस्लामी विचारधाराओं से जुड़े मौलवियों ने हिस्सा लिया. उनका नेतृत्व धार्मिक विद्वान मुफ्ती सैयद मोहम्मद कासिम जिलानी कर रहे थे.
मीटिंग में समुदाय के नेता मुजफ्फर हुसैन और गोपाल अंसारी ने घोषणा की कि, ‘इस्लामी विद्वानों के नेतृत्व में मुस्लिम आरक्षण के लिए एक आंदोलन शुरू किया जाएगा.’ दुर्भाग्य की बात है कि मुसलमानों का नेतृत्व ऐसे मौलवी कर रहे हैं जो दसवीं का इम्तिहान भी पास नहीं कर सकते.
धुले की मीटिंग में मजेदार बात यह रही कि कानूनी विशेषज्ञ नसीर तामबोली और एक शिक्षाविद प्रोफेसर खलील अंसारी ने मशविरा दिया कि भारतीय संविधान धर्म के आधार पर नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक पृष्ठभूमि के आधार पर आरक्षण देता है. बावजूद इसके मीटिंग में धर्म के आधार पर कोटा के हक में आवाज बुलंद की गई. महाराष्ट्र में जमीयत लंबे समय से मुसलमानों के लिए आरक्षण का आंदोलन चला रही है. मराठों के आरक्षण समर्थक आंदोलन के बाद जमीयत का आंदोलन भी जोर पकड़ रहा है.
4 अक्टूबर के उर्दू टाइम्स की चार कॉलम की एक खबर के अनुसार जमीयत उलेमा ए हिंद की महाराष्ट्र ईकाई के अध्यक्ष मौलानी नदीम सिद्दिकी ने राज्य में अपने संगठन की सभी ईकाइयों को निर्देश दिया है कि 18 अक्टूबर से मुस्लिम कोटा के समर्थन में प्रदर्शन करें. जमीयत के एक अन्य नेता मौलाना मोहम्मद जाकिर उस्लामी ने मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस पर आरोप लगाया कि वह मुस्लिम कोटे के मुद्दे पर खामोशी बरकरार रख कर ‘मुसलमानों से दुश्मनी’ निभा रहे हैं जबकि मराठों का वह समर्थन कर रहे हैं.
सिखों-पारसियों से सीखने की जरूरत
30 सितंबर के रोजनामा इंकलाब की एक रिपोर्ट कहती है कि मुसलमानों के धार्मिक संगठनों ने मालेगांव और नासिक जिले में 7 अक्टूबर को मुसलमान आरक्षण की मांग को लेकर एक खामोश जुलूस निकालने की योजना भी बनाई है. मजेदार बात यह है कि जुलूस के लिए शुक्रवार का दिन चुना गया जिसे कश्मीर हो या मालेगांव, सब जगह धार्मिक कारणों से मुसलमान विरोध जताने के लिए चुनते हैं.
रोजनामा इंकलाब की 2 अक्टूबर की रिपोर्ट के अनुसार मुंब्रा (वृहद मुंबई क्षेत्र का हिस्सा) के दो मुस्लिम संगठनों कुल जमाती कमिटी और मुस्लिम क्रांति मोर्चा ने मुसलमान आरक्षण के लिए आंदोलन छेड़ने का फैसला किया है. ये नेता मुसलमानों को यह नहीं बताते कि 2014 में केंद्र सरकार के कर्मचारियों की संख्या 47 लाख थी जिसमें 14 लाख सैनिक थे. अगर सारी नौकरियां भी मुसलमानों को दे दी जाए फिर भी उनका पिछड़ापन दूर नहीं होगा.
लोगों में प्रगति नए विचारों से आती है. असली बदलाव तभी होगा जब मुसलमान दो काम करेंगे. पहला, ऐसे मुसलमान नेताओं को छोड़ दें जो आपको हमेशा मजलूम यानी शोषित होने का अहसास दिलाते हैं और ऐसे हिंदू नेताओं को खारिज कर दो जो आपको आरएसएस से डराते रहते हैं. दूसरा बुर्के को खत्म करने के लिए आंदोलन शुरू करो. इससे लड़कियां सशक्त होंगी जिनकी आबादी में आधी हिस्सेदारी है.
संक्षेप में, सिखों और पारसियों से सीखो जो अपनी ऊर्जा कारोबार, नए विचारों और शिक्षा में लगाते हैं, न कि अपनी प्रगति के लिए सरकार का मुंह ताकते हैं, इस देश को धर्म के नाम पर बांटा गया था. हम फिर उसी दिशा में जा रहे हैं.