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इंफोसिस: सिक्का की शहादत में खलनायक बन गए नारायणमूर्ति

सिक्का मामले में नारायण मूर्ति की जो छवि सामने आई है उसे देखते हुए संभव है कि सिक्का को कंपनी में फिर से वापस लाया जाए

Murlidharan Shrinivasan

देश की सबसे बड़ी आईटी कंपनियों में से एक इन्फोसिस के संस्थापक एन.आर. नारायणमूर्ति ने अपने सीईओ विशाल सिक्का पर एक बार फिर से निशाना साधा है. इन्फोसिस के तीन स्वतंत्र निदेशकों ने निजी तौर पर नारायणमूर्ति को बताया था कि, सिक्का एक अच्छे चीफ टेक्निकल ऑफिसर तो थे, लेकिन एक अच्छे चीफ एग्जिक्यूटिव ऑफिसर यानी सीईओ नहीं.

नारायणमूर्ति ने विश्वास दिलाते हुए कहा कि सिक्का से उनकी कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं है, सिक्का ने जबतक उनकी कंपनी में काम किया, खूब आनंद और आजादी के साथ किया. लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि सिक्का ने नारायणमूर्ति के छल-कपट से तंग आकर ही अपने पद से इस्तीफा दिया है.


सीईओ और सीटीओ की उपयोगिता और औचित्य पर बहस लंबे अरसे से चली आ रही है. सीईओ की तुलना एक महाप्रबंधक से की जाती है, जो कि तकनीकी और व्यावसायिक मामलों में दक्ष और पेशेवर होना चाहिए.

एक सीईओ को अपनी तमाम योग्यताओं के बावजूद एकनिष्ठ नहीं होना चाहिए, वरना, किसी एक खास क्षेत्र में उसकी रुचि और सामर्थ्य का निवेश, कंपनी को बाकी प्रतिस्पर्धी कंपनियों से पिछड़ने को मजबूर कर देते हैं. यही नहीं उसकी कंपनी सरकारी योजनाओं के साथ कदमताल करने में भी पीछे रह जाती है. बाजार की प्रतिस्पर्धा के लिए रणनीति के अभाव में कंपनी के भीतर धीरे-धीरे असंतोष फैलने लगता है, जिसका असर कंपनी के कर्मचारियों और बाकी अंदरूनी मामलों पर भी पड़ता है.

लेकिन ये भी उतना ही सच है कि, एक तकनीक विशेषज्ञ किसी कंपनी को चलाने के लिए वाणिज्यिक, कानूनी और वित्तीय ज्ञान को आसानी से ग्रहण कर सकता है. लेकिन किसी गैर-तकनीकी व्यक्ति के लिए ऐसा कर पाना मुमकिन नहीं है, जैसे कि कोई चार्टर्ड एकाउंटेंट. ये समस्या उस समय और गंभीर हो जाती है जब मामला कंपनी की बुनियादी जरूरतों या रोजमर्रा के कामकाज से जुड़ा हो.

विशाल सिक्का ने बतौर सीईओ अपना काम बखूबी किया. अपने जबरदस्त ज्ञान और तजुर्बे के बल पर उन्होंने एसएपी और ईआरपी सोल्यूसंश के विकास में अहम योगदान दिया.

दो साल पहले जिस समय सिक्का को सीईओ नियुक्त किया गया था, तब इन्फोसिस के बोर्ड ने सिक्का के व्यक्तित्व के इन्हीं पहलुओं को पसंद किया था. सिक्का ने भी अपने इस्तीफे में इन बातों का जिक्र किया है.

उस समय इन्फोसिस भारत की अन्य आईटी कंपनियों, खासकर टीसीएस के पीछे चल रही थी. सभी को उम्मीद थी कि सिक्का इन्फोसिस को फिर से बुलंदी पर पहुंचा देंगे, लेकिन निर्णायक समिति अभी तक ये तय नहीं कर पाई है कि सिक्का अपने लक्ष्य को हासिल करने में कामयाब रहे या नहीं.

ऐसा नहीं है कि सिक्का बाजार की नब्ज पकड़ने में नाकाम रहे, और न ही वो अपने खिलाफ चल रहे षड्यंत्रों और अभियानों से अनजान थे. ऐसे में इन्फोसिस की वेल्यू चेन बढ़ाने और आर्टीफीशियल इंटेलिजेंस और रोबोट के खतरों के लिए वो ही उत्तरदायी हैं, लिहाजा उन्हें इन मामलों पर जवाब देना चाहिए.

सिक्का सही मायनों में एक अच्छे सीटीओ हैं. ये कहना गलत नहीं होगा कि उनकी योग्यताओं को समय रहते पहचाना नहीं जा सका. इन्फोसिस जैसी बड़ी आईटी कंपनी को नई से नई और आधुनिकतम टेक्नोलॉजी के साथ चलने के लिए लगातार प्रयास करते रहने होंगे, साथ ही पुरानी और चलन से बाहर हो रही टेक्नोलॉजी के प्रति भी जागरूक होना होगा. ऐसे में सिक्का का चुनाव गलत नहीं था. पनाया अधिग्रहण मामले में उपलब्ध सबूतों और जांच से भी ये साबित हो चुका है कि सिक्का की तरफ से कोई भी अहम वाणिज्यिक या वित्तीय गलती नहीं हुई.

इन्फोसिस के संस्थापकों और बोर्ड के बीच असहमति पिछले साल फरवरी में उस समय शुरू हुई, जब बोर्ड ने सिक्का का वेतन 55 फीसदी बढ़ाकर 1.10 करोड़ अमेरिकी डॉलर करने का फैसला किया. पिछले साल अप्रैल में जब सिक्का को दोबारा मैनेजिंग डायरेक्टर और सीईओ नियुक्त किया गया, तब सिर्फ 23.57 फीसदी प्रमोटरों ने ही उनके पक्ष में वोट डाले थे.

कुछ प्रमुख संस्थापक इस बात से भी नाराज थे कि इन्फोसिस बोर्ड ने पूर्व मुख्य वित्तीय अधिकारी राजीव बंसल को 17.38 करोड़ रूपए का भुगतान क्यों मंजूर किया? हालांकि इंफोसिस बोर्ड ने बाद में अपनी इस दरियादिली में खासी कटौती की थी.

ऐसा संदेह है कि राजीव बंसल को ये भुगतान उन्हें चुप कराने के लिए किया गया था, क्योंकि उनके पास पनाया अधिग्रहण मामले में कई कच्चे चिट्ठे थे, जिन्हें वो उजागर कर सकते थे.

सिक्का और बाकी बड़े अधिकारियों के वेतन में जबरदस्त इजाफे के फैसले से नारायण मूर्ति भी खफा थे, फर्स्टफोस्ट ने अपनी एक खबर में पहले ही बताया था कि- 49 करोड़ रुपये के मुकाबले, सिक्का का 2016-17 का वेतन करीब 935 गुना ज्यादा था.

तस्वीर: पीटीआई

लेकिन नारायण मूर्ति सार्वजनिक रूप से इस बात पर चर्चा नहीं करना चाहेंगे, हालांकि उनका सारा जोर इसी बात पर है कि कंपनी के कर्मचारियों की संख्या और वेतन में जरूरी संतुलन बना रहे. करीब एक दशक पहले नारायण मूर्ति की खासी किरकिरी हुई थी, जब उन्होंने कहा था कि किसी भी तरह के हर्जाने और मुआवजे में संतुलन बेहद जरूरी है, बड़े से बड़े मुआवजे और छोटे-छोटे मुआवजे में 15 गुना से ज्यादा का अंतर नहीं होना चाहिए.

अपने इस फैसले को लागू करने के लिए नारायण मूर्ति खासी सख्ती बरती थी. आखिरकार, इन्फोसिस के बाकी संस्थापकों ने इस नियम को बदला और स्टॉक के माध्यम से अपने कर्मचारियों को कई वित्तीय अधिकार दिए. क्योंकि इन्फोसिस संस्थापकों को पता है कि कर्मचारियों ने ही उन्हें करोड़पति बनाया है.

फिलहाल, सीटीओ-सीईओ विवाद का सामने आना, दिग्गजों का एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाना भारतीय आईटी सेक्टर के लिए अच्छा संकेत नहीं है. पुरानी पीढ़ी सफलता के मामले में युवा पीढ़ी के सामने नहीं ठहर पा रही है, नारायण मूर्ति को याद रखना चाहिए कि, सिक्का की नियुक्ति से पहले, वो और उनके बाद बने कंपनी के सभी सीईओ तकनीकी विशेषज्ञ यानी टेक्नोक्रेट ही थे.

सिक्का की शहादत में नारायण मूर्ति एक खलनायक के रूप में उभरकर सामने आए हैं, इसलिए ये कहना दूर की कौड़ी नहीं होगा कि, आने वाले दिनों में इन्फोसिस बोर्ड सिक्का को फिर से बहाल करने के बारे में सोच सकता है. अगर ऐसा हुआ तो ये बात नारायण मूर्ति को और बड़ा खलनायक बना देगी, हालांकि इस पदवी के लिए उन्हें शायद ही हकदार होना चाहिए.