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अर्थव्यवस्था में सुस्ती एक हकीकत है लेकिन पीएम मोदी के ढांचागत सुधारों की तारीफ होनी चाहिए

मोदी के खिलाफ मुख्य दलील कि उन्होंने अर्थव्यवस्था को बुरे दौर में पहुंचा दिया है, आंकड़े इसका समर्थन नहीं करते हैं. अगर कुछ है तो वो ये कि उन्होंने जो किया है, बहुत से नेता उतनी दिलेरी नहीं दिखा पाते.

Sreemoy Talukdar

जीडीपी में गिरावट और मुख्य सेक्टरों में मंदी से भारतीय अर्थव्यवस्था की सेहत को लेकर तेज बहस शुरू हो गई है. भरपूर मनोरंजन के बावजूद, ये बहस उस सवाल का जवाब नहीं खोज पाई है, जो उसके केंद्र में है. अगर नोटबंदी और जीएसटी अर्थव्यवस्था के लिए घातक हैं तो फिर नरेंद्र मोदी ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारी? मोदी ने ऐसे कदम क्यों उठाए, जिससे अर्थव्यवस्था नीचे चली गई और इससे उनकी राजनीतिक पूंजी को भी नुकसान पहुंचने की आशंका जताई जा रही है? कौन नेता ऐसा करता है?

माना जाता है कि मध्यवर्ग बीजेपी का मुख्य वोट बैंक है. सबूत के आधार पर बताया जा रहा है कि ये वर्ग निराश है और मोदी से गुस्सा है. वाट्सएप ग्रुप, जिन्होंने प्रधानमंत्री को लगभग देवतुल्य बना दिया, उनमें अब नाराजगी वाले संदेशों की भरमार है. अगर हम ये मान लें कि मोदी एक मूर्ख नेता नहीं हैं (यहां तक कि उनके घोर विरोधी भी सहमत होंगे), तब भी उनकी आलोचनाओं और अर्थव्यवस्था को संभालने में तार्किक अंसगति को दुरुस्त करने की जरूरत है.


ऐसा करने के लिए, हमें ये स्वीकार करना होगा कि मोदीनॉमिक्स गहरे रूप से उनकी राजनीति से जुड़ा है, और अगर हम मोदीनॉमिक्स को अलग करके देखेंगे तो इसे समझ नहीं पाएंगे.

स्वच्छता अभियान का सत्याग्रह!

उदाहरण के लिए सोमवार को महात्मा गांधी की 148वीं जयंती पर प्रधानमंत्री का संबोधन पूरी तरह साफ-सफाई पर था. प्रतीकों के पुरुष मोदी को ये अच्छी तरह पता था कि उनका फ्लैगशिप 'स्वच्छ भारत' अभियान तीन साल का हो गया है.

मोदी ने इसे 'जनआंदोलन' बताया. मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान को सत्याग्रह और इसमें शामिल होने वालों को 'स्वच्छाग्रही' बताया. अपने फ्लैगशिप अभियान के लिए गांधी को एक प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करने के स्पष्ट प्रयास से आगे जाकर 'न्यू इंडिया के पिता' के रूप में खुद को स्थापित करने की महीन कोशिश, स्वच्छता पर मोदी का ध्यान स्पष्ट था.

मोदी सरकार तीन साल से कुछ अधिक समय से सत्ता में है. इस दौरान उन्होंने स्वच्छता को लेकर लाक्षणिक और शाब्दिक जुनून दिखाया है. रविवार को, महाराष्ट्र को 'खुले में शौच से मुक्त' घोषित किया गया. देशव्यापी स्वच्छता ढांचा तैयार करने और बड़े पैमाने पर व्यवहार में बदलाव पर बल देने की जल्दबाजी ने इस समय अव्यवहारिकता को बढ़ा दिया है. सार्वजनिक रूप से शर्मसार करने की रणनीति ने संवेदनहीनता के आरोपों को पुष्ट किया है. मोदी स्पष्ट रूप से अपनी नीति के प्रभाव को लेकर आश्वस्त हैं और उन्होंने इस रास्ते पर बने रहने की दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाई है.

इसमें, समाज विज्ञानी आशीष नंदी एक हीनभावना की खोज करते हैं लेकिन यह पर्याप्त रूप से एकचित्त फिक्सेशन को स्पष्ट नहीं करता है, और न ही यह स्पष्ट करता है कि क्यों 'स्वच्छ भारत' अभियान जितना आर्थिक रणनीति का हिस्सा है उतना ही इंफ्रास्ट्रक्चर को बढ़ावा देना वाला है.

नोटबंदी और जीएसटी को लागू करने को हम तभी बेहतर तरीके से समझ सकते हैं, जब हम इन विध्वंसकारी कदमों को 'स्वच्छता' के परिप्रेक्ष्य में देखें. मोदी ने 2014 की जीत को न सिर्फ 'स्वच्छ भारत' के निर्माण के लिए वोट माना बल्कि इसे (निश्चित रूप से) भारत की अर्थव्यवस्था की सफाई का वोट भी माना. वह स्पष्ट रूप से मानते हैं कि शॉक थैरेपी से कम कुछ भी सिस्टम को साफ करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा.

मोदी और उनकी नीतियों के खिलाफ कभी भी अपनी आलोचना को नहीं छिपाने वाले प्रताप भानु मेहता ने पिछले साल नोटबंदी की घोषणा के एक दिन बाद इंडियन एक्सप्रेस में लिखा था, 'अगर हम इसे स्वीकार नहीं करते हैं कि यह प्रधानमंत्री की दृढ़ता और ईमानदारी से आता है तो ये मूर्खता होगी. लेकिन वो पूरी तरह खतरनाक है. संस्थागत बनाने की धमकी एक नई तरह की राजनीति है. यह एक विशाल नैतिक नाटक की राजनीति है, जिसके तीन केंद्रीय तत्व व्यक्तित्व, शुचिता और दंडात्मक कल्पना है.'

नोटबंदी और जीएसटी का घाव

नोटबंदी के जरिए मोदी ने अर्थव्यवस्था को मंदी में धकेल दिया और इससे पहले कि ये रफ्तार पकड़ती, उत्साह में विध्वंसकारी जीएसटी जैसा दूसरा घाव दे दिया. ऐसा दुस्साहस एक नीति-निर्धारण को प्रशासनिक कम और धार्मिक काम ज्यादा बना देती है, और मोदी ऐसे कदम नहीं उठाते अगर उन्हें भरोसा नहीं होता कि वो अर्थव्यवस्था में नैतिकता ला रहे हैं जहां ईमानदार करदाताओं को पुरस्कृत किया जाता है और कर चोरों को सजा मिलती है.

आसपास के शोरगुल से अलग मोदीनॉमिक्स एक बायनरी है और प्रधानमंत्री ने एक चयन कर लिया है. उन्होंने तेज विकास हासिल करने की जगह पारदर्शिता, 'स्वच्छता' और अर्थव्यवस्था को औपचारिक बनाने को तवज्जो दी है, भले ही इससे अर्थव्यवस्था सुस्त हो. यह सफाई अभियान तेज विकास के खिलाफ प्रतिक्रियावदी कदम है जो बदनामी और आखिरी वर्षों में यूपीए-2 को सताने वाले बड़े भ्रष्टाचार के कारण गिर गया है.

पी चिदंबरम भले ये दावा कर सकते हैं कि यूपीए ने मोदी को सोने की मुर्गी दी थी, लेकिन उनकी पार्टी के नेता ही उन पर भरोसा नहीं करते हैं. अमेरिका की हालिया यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने ये माना था कि 2010-11 आते-आते कांग्रेस ने काम करना बंद कर दिया था और नौकरियां पैदा करने के मामले में कांग्रेस विफल रही थी.

यूपीए राज के दौरान अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन के चलते एक ऐसा कुचक्र बन गया था कि उस पर विकास को बनाए रखने का मतलब था कि सरकार को बड़े और सांस्थानिक भ्रष्टाचार की तरफ आंख मूंदे रहना पड़ता.

यशवंत सिन्हा और राजीव चंद्रशेखर का हमला

मोदी शासन में भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर यशवंत सिन्हा के बड़े आरोपों के खिलाफ राज्यसभा सांसद राजीव चंद्रशेखर ने इंडियन एक्सप्रेस में लेख लिखा है. चंद्रशेखर, यशवंत सिन्हा के साथ वित्त पर संसदीय समिति के सदस्य रह चुके हैं.

चंद्रशेखर के मुताबिक, 'यूपीए ने अपने पीछे कमजोर अर्थव्यवस्था छोड़ी थी: 12 से अधिक तिमाही से जीडीपी गिरती रही, लगातार 24 तिमाही से महंगाई बढ़ती रही, चालू खाते का घाटा 400 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर था, वित्तीय अनुशासनहीनता, पूंजी निर्माण में गिरावट, विदेशी निवेशकों का बाहर जाना और भ्रष्टाचार से निवेशकों का भरोसा खत्म होना, सालों से नेताओं के निर्देश पर कर्ज देने वाला खंडित बैंकिंग तंत्र, एनडीए-1 में पैदा हुई नौकरियां के दसवें हिस्से के बराबर रोजगार सृजन, अर्थव्यवस्था का रोजगार रहित विकास मॉडल, भ्रष्टाचार से परिपूर्ण क्रोनी कैपिटल्जिम (रघुराम राजन ने खुद इसके बारे में लिखा), नकदी और बड़े नोटों की अर्थव्यवस्था में भरमार, संपत्तियों की कीमत बढ़ाने वाला और नकारा प्रशासन. था'

जीडीपी के तीन साल के सबसे निचले स्तर 5.7 फीसदी पर चले जाने से मोदी की आलोचना हो रही है. इससे पहले की तिमाही में विकास दर 6.1 फीसदी थी और आलोचकों ने अर्थव्यवस्था पर जीएसटी और नोटबंदी के हमले के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहाराया है.

स्वच्छता नहीं अर्थव्यवस्था होनी चाहिए थी प्राथमिकता

मोदी के कदम (साहसिक या पागलपन, किसी के राजनीतिक झुकाव पर निर्भर करता है) इस विश्वास से उठे हैं कि लोग उनसे बड़े भ्रष्टाचार पर रोक की उम्मीद करते हैं. कुछ टिप्पणीकारों का मानना है कि मोदी को तेजी की जगह 'स्वच्छता' को प्राथमिकता नहीं देनी चाहिए थी क्योंकि भारत विकास के एक ऐसे चरण पर है, जहां वो कुछ भ्रष्टाचार सहन कर सकता है लेकिन सुस्त विकास नहीं. यह प्राथमिकता का सवाल है.

इस 'स्वच्छ अर्थव्यवस्था' की कीमत कुछ दिनों की मंदी है. काले धन की समस्या से पार पाने के जोश में मोदी ने निवेशकों को शेल नेटवर्क से आसानी से धन की व्यवस्था पर रोक लगा दी है. केंद्र ने एक लाख शेल कंपनियों का पंजीकरण रद्द कर दिया है, जबकि 37 हजार ऐसी ही कंपनियों की पहचान की गई है.

सितंबर में, वित्त मंत्रालय ने कहा कि 2,09,032 संदिग्ध शैल कंपनियों के बैंक अकाउंट फ्रीज किए गए हैं ताकि अवैध लेन-देन और कर चोरी पर रोक लगाई जा सके.

जैसा कि आर जग्गनाथ ने स्वराज्यमाग में जो लिखा है, 'इस नई व्यवस्था से पूंजी की कमी हुई है. अब नए निवेश के लिए मुनाफे और बाजार विस्तारीकरण का इस्तेमाल करना पड़ेगा. धीमी रफ्तार की ये सबसे बड़ी वजह है…. भारतीय कंपनियां इस नई व्यवस्था के मुताबिक खुद को ढाल नहीं पाई हैं, खासकर अब वो ये भरोसा नहीं कर सकती कि मित्रवत बैंकर्स और राजनीतिक प्रभाव के कारण उनकी परियोजनाओं के लिए पूंजी की व्यवस्था हो जाएगी और उन्हें पूंजी की कमी के बीच अपनी तरफ से निवेश करना पड़ेगा.'

ये बहस का मुद्दा है कि मोदी को ऐसे गहरे ढांचागत सुधारों को शुरू करना चाहिए था, जो मध्यम अवधि में राजनीतिक रूप से खराब और आर्थिक रूप से उल्टे हों, लेकिन लंबे समय में लाभकारी होंगे. उन लोगों की दिक्कतें दूर करना जरूरी है जो लागू करने की लचर व्यवस्था के शिकार हो गए हैं. यह भी एक मुद्दा है कि जीएसटी 'एक देश एक कर' से बहुत अलग है, जैसा कि मोदी ने इसे प्रचारित किया है. लेकिन मोदी के खिलाफ मुख्य दलील कि उन्होंने अर्थव्यवस्था को बुरे दौर में पहुंचा दिया है, आंकड़े इसका समर्थन नहीं करते हैं. अगर कुछ है तो वो ये कि उन्होंने जो किया है, बहुत से नेता उतनी दिलेरी नहीं दिखा पाते.