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मोदी सरकार में फिट नहीं थे रघुराम राजन, इसलिए चुनी अलग राह

राजन ने पद इसलिए छोड़ा क्योंकि वो कुछ मुद्दों पर सरकार के साथ सहमत नहीं हो सके.

Dinesh Unnikrishnan

रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने अपनी किताब ‘आई डू व्हाट आई डू: ऑन रिफॉर्म्स, रियोटिक एंड रिजोल्व’ के लोकार्पण की पृष्ठभूमि में टाइम्स ऑफ इंडिया में दिए एक इंटरव्यू में कहा है, 'कोई प्रस्ताव नहीं होने की वजह से मैंने छोड़ा.'

राजन ने अपने इंटरव्यू में कहा है, 'जब सरकार मेरे रुकने की शर्तों पर सहमत नहीं हो पाई, तो मैंने (पद) छोड़ दिया.'


यह बात साफ है कि जब तक बॉस और कर्मचारी के बीच शर्तों पर सहमति नहीं  होती है तब तक कोई प्रस्ताव भी नहीं आता. मतलब यह है कि राजन ने पद इसलिए छोड़ा क्योंकि वो कुछ मुद्दों पर सरकार के साथ सहमत नहीं हो सके.

प्रस्ताव का नहीं होना शर्तों पर असहमति का केवल सैद्धांतिक दुष्परिणाम है. अब यह जानना जरूरी है कि वो कौन सी शर्तें थीं जिन पर राजन सरकार के साथ सहमत नहीं हो सके और अपनी जिम्मेदारी को जारी नहीं रख पाए. क्या 500 रुपये और 1000 रुपए के नोटों की नोटबंदी की मोदी सरकार की इच्छा इसकी वजह थी?

नोटबंदी का दर्द उसके फायदों से कहीं ज्यादा होगा

राजन ने उन कारणों को साफ नहीं किया है और शायद इस वजह से यह बात कभी सामने न आ सके. हम सब बस इतना जानते हैं कि राजन जब तक रहे (3 सितंबर, 2016 तक), उन्होंने नोटबंदी के विचार को मंजूर नहीं किया. इसके बदले राजन ने इसके दुष्परिणामों के बारे में चेतावनी दी थी. उन्होंने अंदेशा जताया था कि नोटबंदी का दर्द उसके फायदों से कहीं ज्यादा होगा. लेकिन राजन मोदी सरकार की योजना में फिट नहीं बैठे. दोनों अपने-अपने तरीके से सही थे.

कोई सरकार यह बर्दाश्त नहीं कर सकती कि कोई आरबीआई गवर्नर उसकी सभी कार्रवाईयों पर आलोचनात्मक रुख रखे. यहां तक कि उन मुद्दों पर भी, जो उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता हो.

जून, 2016 के फ़र्स्टपोस्ट के लेख में इस लेखक ने उन कारणों की चर्चा की थी जिसने राजन को मोदी सरकार के लिए मांस में हड्डी बना दिया था. अलग-अलग मुद्दों पर, जो आरबीआई गवर्नर के रूप में उनके अधिकार क्षेत्र में भी नहीं आते, उनके सार्वजनिक रूप से दिए गए बयान बड़ी भूल थी. उस समय के लेख में यह लिखा गया था, 'वो यह अनुमान लगाने में विफल रहे कि राजनीतिक व्यवस्था ने आलोचना के लिए उन्हें किस हद तक इजाजत दे रखी है. खासकर राजनीतिक मामलों में.'

राजनीतिक रूप से संवेदनशील मुद्दों पर संयम की अपेक्षा रहती है

लेख में यह भी लिखा गया था 'नॉर्थ ब्लॉक में संक्षिप्त चर्चा के बाद सितंबर, 2013 से रघुराम राजन ने आरबीआई गवर्नर के रूप में पदभार संभाला था. तब से इन विषयों पर चर्चा और बहस के साथ भारतीय सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य से जुड़े मुद्दों को उठाते हुए राजन शिकागो के प्रोफेसर या फिर आईएमएफ प्रमुख अर्थशास्त्री वाली मानसिकता में ही दिखे. एक ऐसे देश में जहां सभी सरकारी नौकरशाह अपने एम्प्लॉयर के बताए रास्ते पर चलते हैं, कोई सरकारी नौकर, चाहे वह आरबीआई गवर्नर ही क्यों न हों, उनसे राजनीतिक रूप से संवेदनशील मुद्दों पर संयम की अपेक्षा रहती है. यह प्रतिबंध रहा है.'

निश्चित रूप से राजन के खिलाफ अभियान को आगे बढ़ाने का मिशन लेकर चलने वाले सुब्रमण्यम स्वामी ही थे, लेकिन यह कल्पना करना बेकार है कि सरकार और सरकार के वैचारिक अभिभावक आरएसएस में किसी ताकतवर समर्थन के बिना स्वामी का अभियान बढ़ा होगा. यह संभव ही नहीं है. वास्तव में स्वामी युद्ध का अस्त्र भर थे. सिद्धांत रूप में आरबीआई गवर्नर के रूप में राजन सरकार में दूसरे टर्म के लिए भी बहुत ज्यादा स्वीकार्य थे अगर उन्होंने अपने व्याख्यानों में आरबीआई की नीतियों और सामान्य अर्थशास्त्र पर बोलते हुए अर्थव्यवस्था के बचाव तक अपने आपको सीमित रखा होता.

लेकिन ऐसा नहीं हुआ. राजन के व्याख्यानों में अक्सर सरकार और उनकी नीतियों की आलोचना बड़ी होकर सामने आई. इतना ही नहीं कई मुद्दों, जिनमें असहिष्णुता, सरकार की बहुप्रचारित मेक इन इंडिया और जनधन योजना भी शामिल हैं, की भी उन्होंने जमकर आलोचना की. मोदी सरकार में कई लोगों को यह मंजूर नहीं था. आरबीआई गवर्नर रहे राजन ने नोटबंदी के संदर्भ में एक केंद्रीय बैंक के प्रमुख के बजाए अक्सर खुद को शिक्षाविद् के तौर पर पेश किया, जो सार्वजनिक मुद्दों पर बोलते हैं.

हमेशा नकारात्मक बातों को प्रकाश में लेकर आए

खासकर नोटबंदी के संदर्भ में मोदी सरकार ने राजन को छोड़कर अच्छा किया. नोटबंदी राजनीतिक फैसला था, जिसे मोदी सरकार ने अंजाम दिया था. अगर आरबीआई सहमत नहीं होती, तब भी सरकार इस योजना के साथ आगे बढ़ती. ऐसा लगता है कि राजन कभी इस फैसले के साथ नहीं थे और उन्होंने सकारात्मक बातों को बढ़ाने के बजाए हमेशा नकारात्मक बातों को प्रकाश में लाया.

शायद वो आरबीआई में अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान भी इस पर अपनी मंजूरी की मुहर नहीं लगाते और सरकार के फैसले के सार्वजनिक विरोध का रास्ता तब भी चुना होता. लेकिन सच्चाई यह है कि आरबीआई के गवर्नर पद पर रहते हुए भी सरकार को नोटबंदी की राह पर चलने से रोकने के लिए राजन कुछ नहीं कर सकते थे. आरबीआई एक्ट केंद्रीय बैंक को इजाजत देता है कि वह सरकार को सलाह दे लेकिन सरकारी आदेश की अवहेलना ना करे. इस तरह राजन और मोदी सरकार दोनों ने नोटबंदी पर अपनी-अपनी राह अलग कर एक-दूसरे को परेशानी से बचाया.