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आई डू व्हाट आई डू: रघुराम राजन की किताब में असहमतियों का साहस

राजन की चेतावनियां अपनी जगह सही साबित हुईं कि कालेधन वाले स्मार्ट लोग हैं, वो जैसे-तैसे अपना बचाव कर लेंगे

Alok Puranik

प्रोफेसर कामयाब अफसर नहीं बनते और कामयाब अफसरों को प्रोफेसरी का रुख नहीं रखना चाहिए. रघुराम राजन की सिर्फ इस नई किताब 'आई डू व्हाट आई डू' से ही नहीं, बल्कि उनके तमाम व्याख्यानों से यह बात साबित होती है.

प्रोफेसर संवाद में, विमर्श में जीने वाला प्राणी होता है, नए तर्क, नए कोण उसे आनंद देते हैं, एक खोजी की जिज्ञासा होती है कि क्या नए कोण तलाश लिए जाए, क्या नए नए आयाम देखे जाएं, रघुराम राजन मूलत प्रोफेसर वृत्ति के हैं और गर्वनरी उनसे लंबी नहीं निभाई गई.


हाल में आई उनकी किताब 'आई डू व्हाट आई डू' में उनके तमाम व्याख्यान आदि संकलित किए गए हैं. इसमें तमाम विषयों पर उनकी राय सामने आई है. महंगाई विमर्श, डोसों के जरिए अर्थशास्त्र समझाने की कोशिश, बैकिंग सेक्टर के संकट, वित्तीय समावेशन, जुगाड़ू पूंजीवाद, निर्यात बतौर आर्थिक रणनीति और नोटबंदी पर उनकी राय सामने आई है.

यह अच्छा है कि रिजर्व बैंक के भूतपूर्व गवर्नर किताब लिख रहे हैं. इससे देश के शीर्ष अर्थ-नियंता संस्थान से जुड़े कामकाज और उसके फैसलों की पद्धति पर रोशनी पड़ती है. रघुराम राजन से पहले हाल में ही रिजर्व बैंक के दो पूर्व-गवर्नरों की किताबें भी आईं हैं, एक पूर्व गवर्नर सुब्बाराव की 'हू मूव्ड माय इंटरेस्ट रेट' और दूसरी पूर्व गवर्नर वाईवी रेड्डी की 'एडवाइस एंड डिसेंट- माई लाइफ इन पब्लिक सर्विस'.

इन किताबों के बीच सर्वाधिक चर्चित किताब प्रोफेसर रघुराम राजन की ही है. उसकी ठोस वजहें भी हैं. तमाम महत्वपूर्ण मसलों पर रघुराम राजन और केंद्र सरकार कई बार सहमति के उच्चतम स्तर पर नहीं दिखे. नोटबंदी के मसला उनमें से एक था.

नोटबंदी और रघुराम राजन

रघुराम राजन अपनी किताब के परिचय में कहते हैं कि नवंबर, 2017 के नोटबंदी के फैसले से बहुत पहले यानी अगस्त, 2014 में नोटबंदी के मसले पर उनकी जो राय सार्वजनिक हुई थी, उसका आशय यह था कि नोटबंदी से इच्छित परिणाम नहीं आते. बड़े कालेधन वाले अपने कालेधन को छोटे-छोटे हिस्सों में बांट कर रास्ते निकाल लेते हैं. इसके अलावा काले धन की बड़ी मात्रा सोने की शक्ल में होती है, जिस पर नोटबंदी का कोई असर नहीं पड़ता.

रघुराम राजन किताब में लिखते हैं कि फरवरी, 2016 में सरकार ने नोटबंदी पर उनकी राय मांगी थी, जो उन्होने साफ शब्दों में दी थी कि इसकी लघु-अवधि की लागत इतनी ज्यादा होगी कि उसके सामने दीर्घकाल में आनेवाले फायदे नाकाफी दिखने लगेंगे. फिर रिजर्व बैंक ने एक नोट तैयार करके सरकार को दिया, जिसमें नोटबंदी की लागत, फायदे और उसके लिए जरुरी तैयारियों पर रोशनी डाली गई थी. नोट में वैकल्पिक कदम भी सुझाए गये थे.

आज कम से कम कालेधन की वापसी को लेकर रघुराम राजन का आकलन सही दिखाई पड़ रहा है. सरकार का मूल आकलन यह था कि 500 और 1000 रुपए के पुराने नोटों को चलन से बाहर करने का परिणाम यह होगा कि जिनके पास काले धन वाले नोट होंगे, वो इन्हें वापस सिस्टम में डालने में हिचकेंगे, उन्हें डर होगा कि कहीं उनसे उनकी कमाई का स्रोत ना पूछ लिया जाए.

जब ऐसे नोटों का बड़ा हिस्सा सिस्टम में वापस नहीं आएगा, तो जाहिर है बड़ी तादाद में कालाधन सिस्टम से बाहर रह जाएगा. रिजर्व बैंक की भूतपूर्व डिप्टी गवर्नर ऊषा थोराट का आकलन था कि अगर बंद किए गए नोटों के बीस प्रतिशत भी वापस नहीं लौटे, तो सिस्टम से 3 लाख करोड़ रुपए बाहर हो जाएंगे.

पर यह सब आकलन सही साबित नहीं हुए, सारी रकम वापस सिस्टम में आ गई. यानी नोटबंदी से कालेधन की समस्या का यह इच्छित समाधान तो नहीं निकला, हां दूसरे फायदे जरूर हुए. इलेक्ट्रॉनिक भुगतान व्यवस्था को बढ़ावा मिला, करों के संग्रह में बढ़ोत्तरी हुई और नए करदाता सिस्टम में आए. पर राजन की चेतावनियां अपनी जगह सही साबित हुईं कि कालेधन वाले स्मार्ट लोग हैं, वो जैसे-तैसे अपना बचाव कर लेंगे.

निर्यात आधारित विकास

किताब में राजन तमाम महत्वपूर्ण सलाहों के साथ एक महत्वपूर्ण सलाह 'मेक इन इंडिया' को लेकर भी देते हैं. किताब में राजन कहते हैं कि 'मेक इन इंडिया' यानी भारत में निर्मित होने वाले साजो-सामान को निर्यात रणनीति से ना जोड़ें. राजन का मतलब है कि निर्यात से बहुत ज्यादा उम्मीद ना करें. निर्यात को समाहित करने की ग्लोबल अर्थव्यवस्था की क्षमताएं पहले के मुकाबले कम हैं.

चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था का तेज विकास निर्यात को केंद्र में रखकर किया था. वैसा भारत करेगा, तो खतरे हैं, क्योंकि पहले की स्थितियां अलग थीं, अब की स्थितियां अलग हैं. यानी अब निर्यात पर अर्थव्यवस्था का विकास टिकना मुश्किल हो जाएगा. इसलिए 'मेक इन इंडिया' को पूरे तौर पर निर्यात आधारित विकास से ना जोड़ दिया जाए. यानी निर्यात के लिए तमाम तरह की छूटें, सस्ती लागत सुनिश्चित करने जैसे कदमों पर गंभीर विचार होना चाहिए. यह सलाह अब भी प्रासंगिक है.

असहमतियों का साहस

हाल में देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रहमण्यम ने कहा था कि देश में आर्थिक विमर्श में असहमतियां कम उभरती हैं, एक जैसे विचार आते हैं. गौरतलब है कि अरविंद सुब्रहमण्यम रघुराम राजन के साथ काम कर चुके हैं. आर्थिक नीतियां बनाना सिर्फ गणित का काम नहीं है, यह मूल्यांकन का, विवेक का काम भी है.

किसी भी समस्या पर तमाम कोणों से सोचने पर समस्या पर समग्र चिंतन होता है. प्रोफेसर इस काम को बेहतर तरीके से कर सकते हैं अफसरों की ट्रेनिंग इस तरह की नहीं होती. उन्हें टास्क देकर उसके रिजल्ट देने की उम्मीद की जाती है. रघुराम राजन ने असहमतियों का साहस दिखाया. आर्थिक नीतियों में अंतिम परिणाम क्या होंगे, यह कोई नहीं बता सकता, पर एक ही तरह से सोचने वालों का झुंड पक्के तौर पर किसी समस्या के सारे आयामों पर विचार नहीं कर सकता.

रघुराम राजन की बातों को बहुत गौर से सुना जाना चाहिए. उनसे सहमति या असहमति का मसला अलग है. ज्ञान की परंपराओं में उन लोगों को भी पूरे सम्मान से सुने जाने की रिवायत है, जिनसे पूर्ण असहमति हो. ऐसी ही असहमतियां स्वागत योग्य हैं.