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एक फीसदी आबादी के इनकम टैक्स भरने पर क्या इतराना!

जिस हिसाब से रियल एस्टेट, कार एसी और फ्रिज का बाजार बढ़ रहा है उसे देखते हुए माना जा सकता है कि निजी आयकर दाताओं की तादाद देश में काफी कम है

Chandan Srivastawa

बीते वित्तवर्ष में आयकर रिटर्न भरने वाले व्यक्तियों की संख्या बढ़ गई है, क्या इस तथ्य के आधार पर मान लें कि नोटबंदी का फैसले का सकारात्मक असर हुआ है, पहले की तुलना में लोगों के पास अपनी आमदनी छुपाने के अवसर कम हुए हैं ?

आप चाहें ना मानें लेकिन आयकर विभाग का दावा कुछ ऐसा ही है. समाचारों में आया है कि वित्तवर्ष 2016-17 के लिए आयकर भरने वालों की संख्या 2.82 करोड़ हो गई है. यह वित्तवर्ष 2015-16 में आयकर रिटर्न भरने वालों की तुलना में 24 प्रतिशत ज्यादा है.


इस तथ्य के आधार पर आयकर विभाग को लगता है कि आयकर रिटर्न दाखिल करने वालों की संख्या बढ़ी है तो इसका कारण निश्चित ही नोटबंदी का फैसला रहा है. आइए, पहले आयकर विभाग के परोसे गये तथ्य पर ही विचार कर लें.

क्या कहते हैं पुराने आंकड़े

भारत में कितने लोग अपने आयकर का ब्योरा भरते हैं यह जानकारी सार्वजनिक तौर पर सहज उपलब्ध नहीं है. वर्षों से मांग की जा रही थी कि आयकर से संबंधित आंकड़े सरकार सार्वजनिक करे. छात्रों, अर्थशास्त्रियों, शोधकर्ताओं की जरूरत को ध्यान में रखते हुए डेढ़ दशक बाद 2016 में पहली बार आयकर विभाग की ओर से इस दिशा में कुछ पहलकदमी हुई.

सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता के तकाजे से सरकार ने बीते 15 सालों के प्रत्यक्ष कर से संबंधित आंकड़ों का एक दस्तावेज की शक्ल में प्रकाशन किया. आंकड़ों को सार्वजनिक करते वक्त आयकर विभाग का कहना था कि इससे टैक्स संबंधी नीति बनाने तथा राजस्व-प्राप्तियों को लेकर पूर्वानुमान लगाने में मदद मिलेगी.

फिर भी कुछ पर्दादारी बनी रही क्योंकि निजी (इंडिविजुअल) आयकर दाताओं से संबंधित आंकड़े सिर्फ निर्धारण वर्ष (असेसमेंट इयर) 2012-13 के प्रकाशित हुए. इसमें दिखाया गया था कि 31 मार्च 2012 को समाप्त होने वाले वित्तवर्ष में कितने व्यक्तियों ने आयकर का विवरण भरा है.

आयकर विभाग के सत्तर पेजी दस्तावेज में दर्ज आंकड़ों के आधार पर समाचार छपे कि निर्धारण वर्ष 2012-13 में कुल 2.87 करोड़ लोगों ने इनकम टैक्स रिटर्न भरा है.

यह संख्या वित्तवर्ष 2016-17 में आयकर का विवरण भरने वाले लोगों से कहीं ज्यादा है और इस तथ्य के आधार पर कहा जा सकता है कि बेशक वित्तवर्ष 2015-16 की तुलना में इन्कम टैक्स रिटर्न भरने वालों की संख्या में इजाफा हुआ है लेकिन इस इजाफे के बावजूद निर्धारण वर्ष 2012-13 की तुलना में वित्तवर्ष 2016-17 में इन्कम टैक्स रिटर्न भरने वालों की संख्या कम है.

अगर वित्तवर्ष 2016-17 में आयकर का विवरण भरने वालों की बढ़ी हुई संख्या की वजह नोटबंदी के फैसले को मान लें तो फिर सवाल उठेगा यह संख्या निर्धारण वर्ष 2012-13 की तुलना में किन वजहों से कम है ? आयकर विभाग ने नए आंकड़ों को जारी करते वक्त इस सवाल पर मौन रहना उचित समझा है.

24 फीसदी की बढ़त अचानक नहीं

इस सिलसिले की दूसरी बात यह कि आयकर विभाग के निर्धारण वर्ष 2012-13 के आयकर-विवरण से संबंधित आंकड़ों से यह भी जाहिर होता है कि टैक्स रिटर्न भरने वालों की संख्या में बढ़ोत्तरी कोई पहली बार नहीं हुई है. और ना ही इस तेजी को औचक करार दिया जा सकता है जो उसे नोटबंदी सरीखे चौंकाऊ फैसले का नतीजा माना जाए.

साल भर पहले जारी आयकर विभाग के आंकड़ों से यह भी जाहिर होता है कि साल 2011-12 से करदाताओं की संख्या में 25 फीसदी की बढ़वार हो रही है. वित्तवर्ष 2011-12 में कुल करदाताओं की संख्या 4 करोड़ थी जबकि इसके तीन साल बाद 2014-15 में कुल करदाताओं की संख्या बढ़कर 5 करोड़ हो गई.

करदाताओं की संख्या में सालाना 25 फीसद वृद्धि की बात की पुष्टी एक और तथ्य से भी होती है. आयकर विभाग के 2016 के दस्तावेज के मुताबिक 2001-01 से 2015-15 के बीच कुल आयकर की वसूली में नौ गुना इजाफा हुआ है. 2000-01 में कुल 31,764 करोड़ रुपये आयकर के रुप में वसूल हुए थे, यह मात्रा 2015-16 में बढ़कर 2.86 लाख करोड़ रुपए हो गई.

जाहिर है, आयकर विवरण भरने वालों की संख्या और आयकर की वसूली में हुआ इजाफा पहले से चले आ रहे रुझान के अनुरुप है ना कि इतना अलग कि उसे नोटबंदी का नतीजा बताया जाए.

बहुत कम है आयकर देने वालों की संख्या

आयकर विभाग की 2016 की रिपोर्ट से एक और चौंकाऊ तथ्य सामने आया. इन्कम टैक्स रिटर्न भरने वाले कुल 2.87 करोड़ लोगों में 1.62 करोड़ लोगों ने दिखाया था कि उनकी आमदनी करयोग्य नहीं है.

इसका मतलब हुआ इनकम टैक्स रिटर्न भरने वाले कुल व्यक्तियों में 50 प्रतिशत से ज्यादा लोगों ने अपनी आमदनी पर सरकार को एक पैसे का टैक्स नहीं दिया.केवल 1.25 करोड़ लोगों ने ही आयकर के नाम पर सरकारी खजाने कुछ अंशदान किया था.

अगर देश की कुल आबादी (सवा अरब) के लिहाज से सोचें तो यह निष्कर्ष सामने आएगा कि भारत में महज 1 फीसदी आबादी आयकर देती है. अगर इस ब्यौरे को और ज्यादा तर्कसंगत बनायें और 2011 की जनगणना में दर्ज व्यस्क आबादी (76 करोड़) की संख्या को आधार मानें तब भी देश में आयकर देने वालों की संख्या हद से हद 4 फीसदी ही मानी जाएगी.

आयकर से संबंधित ऊपर की तस्वीर से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ज्यादातर धनी लोग अब भी अपनी आमदनी पर वाजिब टैक्स नहीं चुका रहे हैं. मिसाल के निर्धारण वर्ष 2012-13 के ही आंकड़ों को आधार मानें तो मात्र 18,358 लोगों ने माना था कि उनकी सालाना आमदनी 1 करोड़ से ज्यादा है.

लेकिन यह तथ्य लग्जरी कार, सोना या रियल एस्टेट की बिक्री के तथ्यों से मेल नहीं खाता और सफेद झूठ ही जान पड़ता है. जिस हिसाब से रियल एस्टेट, चारपहिया गाड़ियों, एसी और फ्रिज की बिक्री का बाजार बढ़ रहा है उसे देखते हुए माना जा सकता है कि निजी आयकर दाताओं की तादाद देश में काफी कम है. यह एक तरफ देश में मौजूद आर्थिक असमानता के बढ़ने का संकेत है तो दूसरी तरफ कराधान के उचित ढांचे के अभाव का लक्षण.