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जीएसटी: आम आदमी की मुश्किलें बढ़ी, राजनीतिक दलों का ठाठ

असंगठित उद्योग पूंजीबल और उत्पादन पैमाने में कमजोर होने के कारण बाजार से बाहर हो जाएंगी, इससे सीधे तौर पर फायदा बड़े उद्योगों को होगा

Rajesh Raparia

मध्य रात्रि में संसद के विशेष समारोह में घंटी बजा कर 1 जुलाई से देश में जीएसटी व्यवस्था लागू करने की औपचारिकता पूरी हो गई. सभी विशिष्ट वक्तों- राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक स्वर में कहा कि यह सबसे बड़ा कर सुधार है.

प्रधानमंत्री ने बताया कि इस कर व्यवस्था में गरीबों का विशेष ख्याल रखा गया है. देश का आर्थिक एकीकरण हो रहा है जिसके हम सभी साक्षी हैं. यह सबके प्रयासों का नतीजा है. पर सबसे बड़ी हैरानी की बात यह है कि सबसे बड़े इस आर्थिक सुधार में रोजगार, आर्थिक विषमता का जिक्र किसी भाषण में नहीं हुआ. गरीबों के भलाई का जिक्र मात्र प्रसंगवश आया.


जमीनी हकीकत यह है कि जीएसटी व्यवस्था का सबसे ज्यादा भार गरीबों, कम आय वालों और रोजगार पर पड़ेगी. आर्थिक एकीकरण के नाम पर उत्पादन और बाजार पर बड़े उद्योगों के कब्जे का रास्ता साफ हो गया है.

आधी हकीकत आधा फसाना

यह बार-बार कहा गया है कि जीएसटी से महंगाई कम होगी क्योंकि टैक्स पर टैक्स देने से निजात मिल गई है. और उत्पादन लागत से कमी आएगी जिससे चीजें सस्ती होंगी. जीएसटी में दरों का निर्धारण इस प्रकार किया गया है कि आम जनजीवन पर इसका कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा.

उपभोक्ता कीमत सूचकांक की अधिकांश वस्तुओं और सेवाओं को पहले की भांति या तो कर मुक्त रखा गया है या 5 फीसदी टैक्स लगाया गया है. इस सूचकांक में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी खाद्य वस्तुओं की है, जिन्हें हमेशा की तरह कर मुक्त रखा गया है.

इस सूचकांक में स्वास्थ्य, शिक्षा और ट्रांसपोर्ट जैसी बुनियादी सेवा भी है. उन्हें भी कर मुक्त रखा गया, लेकिन सूचकांक में सेवाओं की हिस्सेदारी 28 फीसदी है. पर कुछ देश में कुल उपभोग में सेवा खर्च की हिस्सेदारी 50 फीसदी है. सेवा कर को 15 फीसदी से बढ़ाकर 18 फीसदी कर दिया गया है.

इसलिए केंद्रीय राजस्व सचिव के इस दावे में कि साल के अंत में महंगा खुदरा महंगाई दर गिरकर 2 फीसदी रह जायेगी, हकीकत से काफी दूर है. भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) भी इस दावे से असहमत है, जिसका लक्ष्य खुदरा महंगाई दर 4 फीसदी के आसपास रखने का है.

शिक्षा और स्वास्थ्य का खर्च बढ़ेगा

शिक्षा खर्च में केवल फीस ही नहीं होती है, शिक्षा व्यय में अन्य खर्च भी होते हैं, पर उन पर जीएसटी में कोई रहम नहीं दिखायी गई है. उच्च शिक्षा जैसे इंजीनियरिंग, एमबीए और डॉक्टरी की पढ़ाई के शिक्षा खर्चों पर मार असहनीय है.

इकॉनोमिक्स टाइम्स की एक रिेपोर्ट के अनुसार हॉस्टल, मेस (खाना) खर्च पर सालाना औसत एक लाख रुपए का खर्च आता है. इस पर तीन फीसदी कर बोझ था, जो अब बढ़कर 18 फीसदी हो जाएगा. यानी 18 हजार रुपये. कहें तो एक लाख रुपए पर 15 हजार रुपए की टैक्स बढ़ोतरी. पर ऐसे खर्च उपभोक्ता कीमत सूचकांक में शामिल नहीं हैं.

इसके अलावा छात्रों पर इंटरनेट, मोबाइल, बीमा, बैंक सेवा आदि पर बढ़ी दर का भी भारी प्रतिकूल असर पड़ेगा. स्वास्थ्य से जुड़ी खून-पेशाब आदि की जांच सुविधाओं डाइगोनिस्टक पर टैक्स की दर तीन फीसदी बढ़ गई है. उत्पादन लागत में संभावित कमी का लाभ कब मिलेगा, इसके लिए कोई समय-सीमा तय नहीं है, लेकिन सेवा कर में बढ़ोतरी की चुभन तत्काल शुरू हो जाएगी. इसलिए महंगाई दर गिरने का दावा फसाना अधिक दिखाई देता है.

जीएसटी को लेकर कहा जा रहा है कि आजाद भारत का यह सबसे बड़ा टैक्स रिफॉर्म है

पेट्रोल-डीजल की लागत बढ़ेगी

वैसे पेट्रोल-डीजल, एटीएफ आदि को जीएसटी से बाहर रखा गया है. लेकिन इनकी उत्पादन प्रक्रिया में इस्तेमाल होने वाली वस्तुएं जीएसटी के दायरे में हैं. पर तेल उत्पादन कंपनियों को टैक्स पर टैक्स छूट का लाभ नहीं मिलेगा. यह बात वित मंत्री भी स्वीकार चुके हैं.

इस उद्योग के जानकारों का कहना है कि जीएसटी के कारण तेल उत्पादन कंपनियों पर 25-30 हजार करोड़ रुपए सालाना का बोझ बढ़ जायेगा. जाहिर है यह बड़ा बोझ उपभोक्ता को ही उठाना है.

गरीबों पर पड़ेगी ज्यादा मार

खाद्य पदार्थों को लेकर सरकारी दावों एक बार सही भी मान लिया जाए, तो उसके बाद भी गरीब, वंचित और निम्न आय वर्ग पर जीएसटी की तीखी मार पड़ेगी. देश के हाट, साप्ताहिक बाजारों में ये वर्ग सबसे ज्यादा खरीदारी करते हैं.

इन बाजारों में कपड़ा, प्लास्टिक का सामान, बरतन आदि सामान की खरीदारी होती है. इनकी आपूर्ति तकरीबन सौ फीसदी असंगठित क्षेत्र से होती है. लेकिन अब तक काफी सीमा तक उत्पाद शुल्क से यह क्षेत्र मुक्त था क्योंकि डेढ़ करोड़ रुपए के कारोबार तक उत्पाद शुल्क नहीं लगता था, लेकिन अब यह सीमा घटा कर 20 लाख रुपए कर दी गई है. यानी अधिकांश असंगठित क्षेत्र की इकाइयां टैक्स के घेरे में आ जाएंगी. उनकी उत्पादन लगात भी बढ़ेगी और व्यवसाय लागत भी.

नतीजन इन बाजारों में मिलने वाला सस्ता सामान अब महंगा हो जाएगा और उन्हें बड़े उद्योगों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ेगी. यह असंगठित उद्योग ही बड़े उद्योगों और नीति निर्माताओं की आंख का कांटा बने हुए थे. अब यह इकाइयां पूंजीबल और उत्पादन पैमाने में कमजोर होने के कारण बाजार से बाहर हो जाएंगी. मतलब साफ है कि ये सस्ते सामान अब महंगे मिलेंगे.

बड़े उद्योगों की मुराद पूरी

हाल ही में वर्ल्ड बैंक एंटरप्राइजेज के सर्वे रिपोर्ट में संगठित क्षेत्र के विकास में असंगठित क्षेत्र को बड़ी बाधा बताया है. विदेशी सस्ती पूंजी, खुदरा में संगठित पूंजी असंगठित क्षेत्र को कोई कड़ी चुनौती देने में अब तक नाकाम रही है. लेकिन जीएसटी के कारण अब इस क्षेत्र का कमजोर पड़ना तय है. इन्हें अपना अस्तित्व बचाना लगभग असंभव हो जायेगा. इस क्षेत्र का सारा उत्पादन और बाजार अब बड़े उद्योगों और संगठित क्षेत्र को मिलना तय है.

बड़े उद्योगों को बड़ा फायदा

जीएसटी से बड़े उद्योगों को कितना बड़ा फायदा होने वाला है, इसका मोटा अनुमान लगाना कोई मुश्किल नहीं है. प्लास्टिक और पैकेजिंग बाजार में असंगठित क्षेत्र की हिस्सेदारी 40-50 फीसदी है. इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जैसे पंखे, पंप, स्विच गियर आदि में 25-40 फीसदी, डेयरी उद्योग में तकरीबन 80 फीसदी, परिधान बाजार में 70 फीसदी, भवन निर्माण के सामान जैसे सेरेमिक टाइल, प्लाइवुड आदि में 50-70 फीसदी, जुलरी में 75 फीसदी, डाइग्नोस्टिक क्षेत्र में 85 फीसदी हिस्सेदारी असंगठित क्षेत्र की है.

फर्नीचर में यह हिस्सेदारी 90 फीसदी से ऊपर है. पर इस क्षेत्र पर ही फर्जीवाड़ा कर कर चोरी, कच्चे-पक्के का इल्जाम है. प्रधानमंत्री मोदी इस कच्चे-पक्के व्यवस्था को खत्म करने की ठान लिए हैं. तेजी से बढ़ रहा यह विशाल बाजार अब बड़े उद्योगों को मिलना तय है.

रोजगार का क्या

कृषि को छोड़कर देश का 92 फीसदी रोजगार असंगठित क्षेत्र से आता है. पर अब यह क्षेत्र खत्म होने के लिए अभिशप्त है. इससे बड़े पैमाने पर रोजगार जाने का खतरा है. क्या सरकार बढ़े टैक्स संग्रह से इनको रोजगार दे पाएगी. संगठित क्षेत्र से कितना रोजगार सृजन पिछले पांच सालों में हुआ, श्रम ब्यूरो के रिपोर्ट से उसका ब्योरा सबके सामने हैं.

रोजगार सृजन 2015-16 घट कर महज 1.35 लाख रह गए. हर साल एक करोड़ नये युवा रोजगार बाजार में बढ़ जाते हैं. मोटे तौर पर आकलन है कि संगठित क्षेत्र में एक करोड़ रुपए की पूंजी से 2-3 रोजगार पैदा होते हैं. रोजगार मुहैया कराने के लिए क्या संगठित क्षेत्र आवश्यक निवेश कर पाएगा. अब तक का अनुभव तो कहता है नहीं. आने वाले समय में रोजगार की समस्या भारी असंतोष को जन्म देगी, राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी इसकी ओर साफ-साफ इशारा कर चुके हैं.

आय विषमता बढ़ेगी

किसी भी देश में आर्थिक विषमता को दूर करना सबसे बड़ा लक्ष्य होता है. पर बढ़ती आय विषमता आज हर देश में बड़ी समस्या बनी हुई है. विकसित देशों में यह ज्यादा विकराल हो गयी है. जीएसटी का विश्व अनुभव साफ इंगित करता है कि जिन-जिन देशों में जीएसटी लागू हुआ है, वहां विषमता बढ़ी है.

फ्रांस, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में जीएसटी लागू हुए अरसा बीत चुका है, लेकिन वहां आय विषमता तेजी से बढ़ी है. जीएसटी राज में सबसे ज्यादा मार उस वर्ग पर पड़ती है जिसकी आय कम होती है और खर्च आमदनी से ज्यादा. अन्य शब्दों में जिसकी खर्च योग्य आय में अधिक बचत क्षमता होगी, उस पर जीएसटी की मार सबसे कम पढ़ती है.

कर व्यवस्था के बुरे या अच्छा होने का सर्वमान्य एक ही पैमाना है कि कुल मिलाकर आम जनजीवन पर करों का बोझ घटता है. इसी पैमाने पर विकास के ब्रहृमास्त्र जीएसटी का आकलन देश में होगा.

मोदी का हृदय परिवर्तन

वैसे पूर्व में बतौर गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी एक नहीं, कई बार कह चुके हैं कि देश में जीएसटी कभी सफल नहीं होगा. देश में इसके लागू करने के लिए पर्याप्त आधारभूत संचरना नहीं है. पर अब प्रधानमंत्री जीएसटी लागू करने के लिए हर जोखिम लेने को तैयार हैं. उन्हें करोड़ों छोटे-बड़े व्यापारियों और उद्यमियों की कोई परवाह नहीं है. पर अब जीएसटी ने उनका हृदय परिवर्तन कर दिया है. इसका कारण समझना कोई अबूझ पहेली नहीं है.

निर्विवाद रूप से सब मानते हैं कि इससे केंद्र और राज्य सरकारों के राजस्व में बढ़ोतरी होगी. सरकारों के पास चुनाव के समय वोट लुभावन घोषणाओं के लिए फंड का टोटा कम हो जाएगा. जाहिर है कि जीएसटी राजनीतिक मसला ज्यादा बना हुआ है. इसीलिए सरकारों की कामधेनु गाय पेट्रोल-डीजल, शराब आदि को जीएसटी के दायरे से बाहर रखा गया है क्योंकि इससे दलगत राजनीति के राजसी ठाठ-बाट का इंतजाम होता है.