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यशवंत सिन्हा की नाराजगी: कमजोर अर्थशास्त्र का गणित या राजनीति!

कुल मिलाकर यशवंत सिन्हा जो कह रहे हैं, वही बात कई अर्थशास्त्रियों और आर्थिक सर्वेक्षण में भी कही गई है

Alok Puranik

देश के भूतपूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा नाराज हैं. उनकी नाराजगी के गहरे अर्थ हैं. वह खुद वित्तमंत्री रहे हैं  इसलिए उनकी आलोचना को गंभीरता से लिया जाना चाहिए, दूसरे वह अभी की सरकार के एक जूनियर मंत्री जयंत सिन्हा के पिता भी हैं, इसलिए भी उनकी आलोचना का अर्थ है.

नाराजगी का अर्थशास्त्र


27 सितंबर 2017 को इंडियन एक्सप्रेस के संपादकीय में यशवंत सिन्हा ने सरकार की नीतियों के खिलाफ साफ तौर पर अपनी नाराजगी जाहिर की है. यशवंत सिन्हा ने वित्तमंत्री अरुण जेटली पर हमला करते हुए कहा है कि अरुण जेटली एक भाग्यशाली वित्तमंत्री रहे कि उन्हें कच्चे तेल की गिरती हुई कीमतें विरासत में मिलीं. इसलिए जेटली बहुत बड़ी रकम गिरती हुई कीमतों से बचा पाए.

यशवंत सिन्हा के मुताबिक इस रकम का रचनात्मक इस्तेमाल होना चाहिए था. यशवंत सिन्हा गिरती हुई अर्थव्यवस्था पर कहते हैं कि औद्योगिक उत्पादन ठप हो गया है. खेती संकट में है और भारी रोजगार देनेवाले कंस्ट्रक्शन क्षेत्र की मुश्किलें कम नहीं हो रही हैं. निर्यात गिर रहा है और सेवा क्षेत्र का भी बुरा हाल है. जीएसटी से 95000 करोड़ रुपए के टैक्स कलेक्शन के मुकाबले 65000 करोड़ रुपए रिटर्न की मांग खड़ी हो गई है.

आर्थिक कथाएं

अर्थशास्त्र एक हद तक तो विज्ञान होता है. पर बड़ी हद तक रचनात्मक साहित्य भी हो जाता है. जो भी चाहें उसे सिद्ध भी किया जा सकता है. अर्थव्यवस्था में मंदी है. हाल में आए आर्थिक सर्वेक्षण के खंड दो के मुताबिक भी 8-9 फीसदी ग्रोथ के दिन गए. अब 5 से 7 फीसदी की रफ्तार को बनाए रखना भी मुश्किल होगा. इसके लिए मोदी सरकार के प्रवक्ता सिर्फ खुद को जिम्मेदार नहीं ठहराते.

निर्यात की सुस्ती के लिए ग्लोबल बाजार का ढीलापन जिम्मेदार है. नोटबंदी ने तबाह किया, यह तर्क एक तरफ है. दूसरी तरफ नोटबंदी के बाद लड़े गए विधानसभा चुनावों में मोदी अपने भावुकतापूर्ण भाषणों में साबित कर चुके हैं कि यह तो अमीरों के खिलाफ गरीबों की लड़ाई थी. मोदी चुनाव जीतकर यह भी साबित कर चुके हैं कि अगर ढंग से कथा बुनी जाए, तो कई समस्याओं से सकारात्मक वोट नतीजे निकाले जा सकते हैं.

सच तो यह है नोटबंदी, जीएसटी समेत तमाम अहम आर्थिक फैसले एक तरफा परिणाम लेकर नहीं आते. उनका नकारात्मक और सकारात्मक आयाम होता ही है. पर विपक्ष सकारात्मक आयाम देखने से इनकार करता है और सरकार नकारात्मक आयाम देखने से इनकार करती है. यशवंत सिन्हा को सिर्फ नकारात्मक आयाम दिखायी पड़ रहे हैं, तो इसका मतलब है कि वह विपक्ष के चश्मे से देख रहे हैं.

नाराजगी की राजनीति

यशवंत सिन्हा की राजनीति की वजहें समझ में आती हैं, अगर उनके हिसाब से हालात देखें. वाजपेयी सरकार में वह बहुत अहम मंत्री रहे थे और मोदी सरकार में उन्हें लगभग उपेक्षित ही रखा गया. यशवंत सिन्हा की नाराजगी की वजहें ये हो सकती हैं. पर जैसा रिकार्ड रहा है मोदी सरकार का किसी वरिष्ठ की नाराजगी को ज्यादा भाव मिला नहीं है. कमोबेश यही हाल यशवंत सिन्हा की नाराजगी का भी होना है. पर यशवंत सिन्हा द्वारा उठाये गए मसलों पर नए सिरे विमर्श शुरू हो, यह यशवंत सिन्हा की नाराजगी की सकारात्मक उपलब्धि होगी.

मूल मसले

कुल मिलाकर यशवंत सिन्हा जो कह रहे हैं, वही बात कई अर्थशास्त्रियों और आर्थिक सर्वेक्षण में भी कही गई है. सब कह रहे हैं कि अर्थव्यवस्था में नया औद्योगिक निवेश नहीं हो रहा है. इसकी एक वजह यह है कि अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्रों में मांग कम हो गई है. जिस कंस्ट्रक्शन क्षेत्र की मंदी का मसला यशवंत सिन्हा ने उठाया है वह कंस्ट्रक्शन क्षेत्र भी मंदी से गुजर रहा है क्योंकि कई बड़े बिल्डरों ने बहुत गैरजिम्मेदाराना बरताव किया है.

बिल्डर्स ने वादा किया लेकिन घर नहीं दिया. नेशनल कैपिटल रीजन में ही दो बड़े बिल्डर आम्रपाली और जेपी तमाम तरह की समस्याओं से जूझ रहे हैं. ठगे गए घर खरीदारों के हाल देखकर घरों के नए खरीदार बाजार से गायब हैं. इसकी जिम्मेदारी गैरजिम्मेदार बिल्डरों की है.

अर्थव्यवस्था की तस्वीर अगर शेयर बाजार के आइने से देखें तो अलग तस्वीर दिखती है. जनवरी 2017 से लेकर अब तक शेयर बाजार सूचकांक सेंसेक्स करीब 20 फीसदी की उछाल दर्ज कर चुका है. यह उछाल मंदी के संकेत नहीं देती. पर इसका मतलब यह नहीं है कि अर्थव्यवस्था में रोजगार बहुत तेजी से बढ़ रहा है.

दरअसल अब सबसे बड़ी समस्या सरकार के सामने यही होने वाली है कि जिस अर्थव्यवस्था में रोजगार पैदा नहीं हो पा रहे हैं, उस अर्थव्यवस्था में आम आदमी की जेब में रकम कैसे पहुंचाई जाए. यह बात यशवंत सिन्हा ना भी बताएं, तो भी वर्तमान वित्तमंत्री को समझ लेनी चाहिए.