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रिचर्ड थेलर को नोबल: अर्थशास्त्र का मनोविज्ञान समझने का खिताब

आखिर क्यों कोई अपना सब कुछ गंवा देता है और कोई जीरो से हीरो बन जाता है

Bhuwan Bhaskar

अमेरिकी अर्थशास्त्री रिचर्ड थेलर को मिला नोबल पुरस्कार एकेडमिक्स की शुष्क दुनिया में हवा के एक ताजा झोंके के समान है. शिकागो विश्वविद्यालय के इस अर्थशास्त्री को हो सकता है कि कुछ जानकार एक अर्थशास्त्री मानने से भी इंकार कर दें, क्योंकि इस प्रोफेसर ने अर्थशास्त्र को किताबी समीकरणों और रूढ़ नियमों के आगे बढ़ाकर एक नई दुनिया में पहुंचाया. यह दुनिया है इंसानी स्वाभाव की, व्यवहार की.

क्या है अर्थशास्त्र का मनोविज्ञान?


थेलर ने नेशनल फुटबॉल लीग के फुटबॉलरों के चुनाव से लेकर बाथरूम की सफाई तक को लोगों के आर्थिक चिंतन से जोड़ा. दूसरे शब्दों में कहें तो थेलर वह शिक्षाविद् हैं, जिन्होंने मानव जाति के अर्थशास्त्र पर नहीं, बल्कि अर्थशास्त्र के मानवीय पहलुओं पर काम किया.

अर्थशास्त्र का मनोविज्ञान क्या है, क्यों एक व्यक्ति अपने पिता से मिली करोड़ों की संपत्ति को खाक कर सड़क पर आ जाता है और दूसरा विरासत में मिली खाक से करोड़ों का साम्राज्य खड़ा कर देता है. क्यों जवानी लाखों कमाने वाला व्यक्ति बुढ़ापे में दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर हो जाता है -ये सारे सवाल थेलर की रिसर्च, उनके अध्ययन और उनके लेखन का हिस्सा थे.

उन्होंने यह बताया कि कोई व्यक्ति किस मनोविज्ञान से खराब आर्थिक फैसले करता है, उन्होंने यह भी समझाने की कोशिश की कि निवेश के समय क्या गलतियां कर निवेशक लूजर बन जाता है. और अपने इन निष्कर्षों को उन्होंने समाज के भले के लिए इस्तेमाल करने का दबाव बनाया. उन्होंने अमेरिकी सरकार से अपील की कि अमेरिकियों को रिटायरमेंट के बाद की तैयारी के लिए अनिवार्य तौर पर बचत खातों से जोड़ना चाहिए.

अमेरिका से जुड़ी है थेलर की थ्योरी

अमेरिका में पैदा होने और पढ़ने-समझने के कारण हालांकि थेलर की पूरी थ्योरी अमेरिकी समाज के आर्थिक व्यवहार से जुड़ी है, लेकिन थोड़ा गहराई में उतरने पर समझ में आ जाता है कि दरअसल थेलर की थ्योरी पूरी दुनिया में व्याप्त और प्रचलित कथित विकास की लोकप्रिय अवधारणा से पैदा हुई आर्थिक समस्याओं का समाधान पेश करती है.

भारत का ही उदाहरण ले लें, तो करीब दो दशक पहले तक हर युवा का सपना सरकारी नौकरी हुआ करती थी. इसके पीछे का मूल उद्देश्य था आर्थिक सुरक्षा. और उसके पीछे का एक बड़ा कारण रिटायरमेंट के बाद मिलने वाला पेंशन.

लेकिन 1991 में उदारीकरण का दौर शुरू होने के बाद निजी नौकरियों का विस्तार होता गया और फिर एक दशक बाद सरकार ने भी पेंशन रिजीम को बंद करने की घोषणा कर दी. निजी कंपनियों में बड़ी सैलरी, आईटी बूम और सस्ते कर्ज का नतीजा ये हुआ कि नौकरी में आने के 2-3 साल के भीतर हर युवा के लिए घर खरीदना एक चलन बन गया.

कैसे बढ़ा कर्ज का चलन?

विकास की बयार पर चढ़कर हर कोई बैंकों का कर्जदार बन गया. घर, गाड़ी और विदेशी दौरे हर किसी के एजेंडे का हिस्सा बन गए. लेकिन फिर 2008 की मंदी आई और समझ में आया कि विकास के अमेरिकी मॉडल का एक सच ये भी है कि नौकरियां जा सकती हैं, कर्ज के ईएमआई डिफॉल्ट हो सकते हैं और अच्छी-खासी जिंदगी रातों रात सड़क पर आ सकती है.

रिचर्ड थेलर ने अपने काम में समाज को विकास के इसी दूसरी सच के लिए तैयार करने का काम किया. और जैसा कि नोबल समिति ने स्वीकार किया है कि थेलर केवल रिसर्च पेपर पढ़कर संतुष्ट नहीं हुए, बल्कि उन्होंने समाज को इस सच से बचाने के लिए सरकारों और सामाजिक समूहों को प्रेरित भी किया.

लाभ का लालच बढ़ने से नुकसान

थेलर ने लिखा, 'हम अमेरिकी बहुत ज्यादा खाते हैं, बहुत ज्यादा कर्ज लेते हैं, बहुत कम बचत करते हैं और कोई भी ऐसी बात जो हमें कठिन लगती हो, उसे जितनी देर तक टाला जा सकता है, टालते हैं.' उन्होंने कहा कि यह मानव मनोविज्ञान है कि वह तुरंत थोड़ा सा लाभ पाने के पीछे बौराया रहता है, भले ही उसे पता हो कि थोड़ा धैर्य रखने पर उसे ज्यादा लाभ हो सकता है.

यह एक ऐसा सिद्धांत है, जिसे भारतीय संस्कृति के आध्यात्मिक पृष्ठभूमि में बहुत आसानी से समझा और पचाया जा सकता है. भारतीय समाज पारंपरिक तौर पर वही रहा है, जो थेलर अमेरिकी विकास से निर्मित समाज को बनाना चाहते हैं.

इसलिए थेलर के सिद्धांत की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है. ऐसे में नोबल समिति ने उनके लिए नोबल पुरस्कार की घोषणा कर एक तरह से पूरी मानव जाति के हित में काम किया है. क्योंकि अब थेलर को पूरी दुनिया में और ज्यादा समझा जा सकेगा, पढ़ा जा सकेगा.

इस संदर्भ में यह चर्चा भी प्रासंगिक है कि अमर्त्य सेन को भी गरीबी पर ही काम करने के लिए नोबल पुरस्कार मिला था. लेकिन सेन का काम ज्यादा मशीनी और व्यवस्थागत था. उसमें आम आदमी के करने के लिए कुछ खास नहीं था. थेलर की प्रासंगिकता इसलिए और बढ जाती है क्योंकि उन्होंने एक आम इंसान को उपलब्ध संसाधनों के साथ आर्थिक संतुष्टि और प्रबंधन का फॉर्मूला पेश किया है.

समाज के लिए जो भी अच्छा है, सरकारें उसे आसान बनाएं- यह थेलर का फॉर्मूला है. इसलिए चाहे जो भी सुधार हों, जो भी समीकरण हों, यदि वह समाज और आम आदमी के लिए सरलता नहीं लेकर आते, तो उनका कोई अर्थ नहीं है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)