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Chhath 2017: क्यों और कैसे मनाते हैं ये त्योहार? जानिए, छठ पूजा का महत्व

नदियों, तालाबों को साफ रखने, ऊर्जा के असीम स्रोत भगवान सूर्य के लिए आभार जताने, भेद और बनावट रहित बर्ताव महसूस करने के साथ प्राचीन और आधुनिक ग्रामीण परिवेश में एक साथ घुलने-मिलने के लिए छठ पूजा में जरूर भागीदार बनिए

FP Staff

दशहरा और दीपावली धूमधाम से मनाने के बाद अब महान लोकपर्व छठ पूजा के कार्यक्रम शुरू हो गए हैं. शास्त्रों में सूर्यषष्ठी नाम से बताए गए चार दिनों तक चलने वाले इस व्रत को पूर्वांचल यानी पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और नेपाल की तराई में खासतौर पर मनाया जाता है.

वैसे दुनिया भर में जहां भी पूर्वांचल के लोग रहते हैं, वे व्रत और पूजा के रूप में सर्वाधिक मान्यता प्राप्त छठ पर्व को जरूर मनाते हैं. हां, ऐसा तभी होता है जब वहां के लोग अपने पैतृक गांव जाने में सक्षम नहीं हो पाते. नहीं तो, छठ के दिनों में पूरब जाने वाले हवाई जहाजों, ट्रेन और रोडवेज की हालत देखते ही बनती है. भीड़ से बचने की कोई भी कोशिश इन दिनों कारगर नहीं हो पाती.


छठ पर्व में खास सिर्फ व्रती और उनका आशीर्वाद होता है. बाकी सब एक जैसे और सिर्फ श्रद्धालु होते हैं, जिन्हें पूजा में शामिल होना ही सबसे बड़ा मकसद लगता है.

कब और कैसे होती है पूजा?

दीपावली, काली पूजा और भैयादूज के बाद कार्तिक शुक्ल पक्ष तृतीया से छठ पूजा के कार्यक्रम शुरू हो जाते हैं. पहले दिन नहाय-खाय में काफी सफाई से बनाए गए चावल, चने की दाल और लौकी की सब्जी का भोजन व्रती के बाद प्रसाद के तौर लेने से इसकी शुरुआत होती है. दूसरे दिन लोहंडा या खरना में शाम की पूजा के बाद सबको खीर का प्रसाद मिलता है. अगले दिन शाम में डूबते हुए भगवान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. फिर अगली सुबह उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देने के बाद पूजा का समापन होता है और लोगों में आशीर्वाद और प्रसाद लेने की होड़ मच जाती है.

आखिर के दोनों दिन ही नदी, तालाब या किसी जल स्रोत में कमर तक पानी में जाकर सूर्य को अर्घ्य देना होता है. सबसे कठिन व्रत कहा जाने वाला 'दंड देना' भी इस दो दिन के दौरान ही किया जाता है. इसे करने वाले शाम और सुबह अपने घर से पूजा होने की जगह तक दंडवत प्रणाम करते हुए पहुंचते और जल स्रोत की परिक्रमा करते हैं. दंडवत का मतलब जमीन पर पेट के बल सीधा लेटकर प्रणाम करना है. सारे श्रद्धालु बहुत ही आदर के साथ इनके लिए रास्ता छोड़ते हैं.

महिला प्रधान व्रत के चारों दिन सबसे शुद्धता, स्वच्छता और श्रद्धा का जबर्दस्त आग्रह रहता है. व्रती जिन्हें 'पवनैतिन' भी कहा जाता है, इस दौरान जमीन पर सोती हैं और बिना सिलाई के कपड़े पहनती हैं. वे उपवास करती हैं और पूजा से जुड़े हर काम को उत्साह से करती हैं. 'छठ गीत' नाम से मशहूर इस दौरान गाए जाने वाले लोकगीतों को इन महिलाओं का सबसे बड़ा सहारा बताया जाता है.

इस वजह से भी छठ है खास

छठ के प्रसाद भी घर में बनाए गए पकवान या स्थानीय मौसमी फल होते हैं. यह सुविधा किसानों-पशुपालकों के लिए सबसे बड़ी राहत देने वाली होती है. प्रसाद का बड़ा हिस्सा आपसी लेन-देन से ही पूरा किया जाता है. लोगों को जोड़ने वाली यह प्रथा मौजूदा दौर में भी 'वस्तु- विनिमय' का सबसे बड़ा उदाहरण है. छठ पूजा के दौरान खरीदारी को लेकर सबसे कम चिंता होती है.

खुद में तमाम आंचलिकता समेटे इस पर्व के दौरान आसपास के अप्रवासी ग्रामीणों का सहज ही महासम्मेलन हो जाता है. संगीत, नाटक जैसे सामूहिक कार्यक्रम और उसमें दिया जाने वाला चंदा उन्हें आपस में और मजबूती से जोड़ता है. वहीं, इस दौरान 'अपना गांव' जैसा भाव काफी अच्छी योजनाओं को जन्म देता है. इनमें से कई योजनाएं बाद के दिनों में रंग लाती हैं.

ग्रामीण इलाकों में इस अवसर पर होने वाले कार्यक्रमों ने पुस्तकालय, खेल, बालिका शिक्षा, सामुदायिक सौहार्द, स्वावलंबन, कुरीति मिटाने और विकास की ललक जगाने में बड़ी भूमिका निभाई है. बड़ी बात यह है कि पूर्वांचल के इन गांवों में छठ पूजा के दौरान बनने वाली विकास योजनाओं की पहल ग्रामीणों की तरफ से होती है. ऐसे सामूहिक प्रयासों में राजनीति के लिए कोई जगह नहीं बचती. छठ पूजा के दौरान आप ऐसे किसी भी गांव में जाएं, वहां कोई कहानी जरूर मिलेगी.

पुराणों और शास्त्रों में भी मिलता है महत्व

भारत में सूर्य को भगवान मानकर उनकी उपासना करने की परंपरा ऋग्वैदिक काल से चली आ रही है. सूर्य और उनकी उपासना की चर्चा विष्णु पुराण, भागवत पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण आदि में विस्तार से की गई है. रामायण में माता सीता द्वारा छठ पूजा किए जाने का वर्णन है. वहीं, महाभारत में भी इससे जुड़े कई तथ्य हैं. मध्यकाल तक छठ व्यवस्थित तौर पर पर्व के रूप में प्रतिष्ठा पा चुका था, जो आज तक चला आ रहा है.

इसके अलावा तमाम पुराणों और शास्त्रीय कथानकों में भी इसकी चर्चा के पीछे प्रकृति को देवी मानने और उनके साथ मां का रिश्ता मानने की आस्था है. छठ पूजा को लेकर कई स्थानीय कहानियां भी मौजूद हैं. आत्मीयता बढ़ाने वाले ऐसे किस्सों का गाहे-बगाहे आपके कानों तक पहुंचना भी लाजिमी है.

कहानियां तो लोग अपनी इच्छा होने पर पढ़ ही सकते हैं. साथ ही छठ पूजा को आजकल के दौर में होते हुए देख भी सकते हैं. इस व्रत के कार्यक्रमों को कोई एक बार देख ले तो मेरा दावा है कि वह इन अनुभवों को हमेशा संजोकर रखेगा. सूर्य की किरणें ही नहीं उनकी आभाओं को भी अर्घ्य देकर अपनी आस्था मजबूत करने वाली पूजा में आपको ग्रामीण भारत का संस्कार दिखेगा, कोई सवाल नहीं दिखेगा.

यह व्रत अब देश के अनेक राज्यों और विदेशों में भी मनाया जाने लगा है तो अपने आसपास इसे होते हुए देखा जा सकता है. नदियों, तालाबों और दूसरे जल स्रोतों को साफ रखने, ऊर्जा के असीम स्रोत भगवान सूर्य के लिए आभार जताने, स्वावलंबी समाज को देखने-समझने, पर्व-त्यौहारों में मानवीय संगीत को सुनने, भेद और बनावट रहित बर्ताव महसूस करने के साथ प्राचीन और आधुनिक ग्रामीण परिवेश में एक साथ घुलने-मिलने के लिए छठ पूजा में जरूर भागीदार बनिए. .. और फिर, चर्चा होती रहेगी.

(न्यूज 18 के लिए केशव कुमार)