देवी भागवत् पुराण के अनुसार साल में कुल चार नवरात्रि होते हैं जिनमें माघ और आषाढ़ के नवरात्र को गुप्त नवरात्र कहते हैं. चैत्र और आश्विन महीने में नवरात्रि मनाया जाता है, जिनका पुराण में सबसे अधिक महत्व बताया गया. बसंत ऋतु में होने के कारण चैत्र नवरात्रि को वासंती नवरात्रि और शरद ऋतु में आने वाले आश्विन मास के नवरात्रि को शारदीय नवरात्रि भी कहा जाता है. चैत्र और आश्विन नवरात्रि में आश्विन नवरात्रि को महानवरात्रि भी कहा जाता है.
चैत्र नवरात्र से हिंदू नववर्ष भी शुरू होता है इसलिए इनका धार्मिक और ज्योतिषीय दृष्टि से विशेष महत्व है. इस बार नवरात्रि 18 मार्च से शुरू होगी जो 25 मार्च तक रहेगी, और नवरात्रि का पारण 26 मार्च को होगा.
नवरात्र मे कलश स्थापना के साथ 18 मार्च से चैत्र नवरात्र का पूजन शुरू होगा और 25 मार्च को रामनवमी मनाई जाएगी. नवरात्रि के प्रथम दिन घटस्थापना की जाती है और फिर देवी की पूजा शुरू की जाती है. इसके बाद नव रात्रि के 9 दिन मां के लिए व्रत रखा जाता है. जो लोग 9 दिन उपवास नहीं रख सकते वो प्रथम और अंतिम दिन रखें. 9वें दिन कन्या पूजन के बाद व्रत खोला जाता है.
क्यों करते हैं घट स्थापना
धर्मशास्त्रों के अनुसार कलश को सुख-समृद्धि, वैभव और मंगल कामनाओं का प्रतीक माना गया है. धारणा है कि कलश के मुख में विष्णुजी का निवास, कंठ में रुद्र और मूल में ब्रह्मा स्थित होती हैं. साथ ही ये भी मान्यता है कि कलश के मध्य में दैवीय मातृशक्तियां निवास करती हैं. इसलिए नवरात्र के शुभ दिनों में घट स्थापना की जाती है.
क्यों अच्छा है व्रत रखना
चैत्र नवरात्र और शारदीय नवरात्र मौसम बदलने के वक्त मनाया जाता है. चैत्र नवरात्र गर्मी की शुरुआत में मनाया जाता है, वहीं शारदीय नवरात्र सर्दी की शुरुआत में. बदलते हुए मौसम का सीधा असर हमारी शारीरिक और मानसिक सेहत पर पड़ता है. इस दौरान बीमार पड़ने की आशंका सबसे ज्यादा होती है. बदलते मौसम में व्रत रखना फायदेमंद होता है, क्योंकि व्रत के दौरान हम हल्का भोजन करते हैं, जिससे पाचन तंत्र को आराम मिलता है. व्रत के दौरान खाया जाने वाला आहार हल्का होने की वजह से आसानी से पच जाता है. व्रत रखने से धर्म और आस्था की ओर रुझान बढ़ता है. जब धर्म की ओर रुझान बढ़ता है तो मां की आराधना भक्त बेहतर तरीके से और सच्चे मन से कर पाते हैं.
जौ ज्वारे का महत्व
नवरात्रि में घर में ज्वारे या जौ बोए जाते हैं. अधिकांश लोग महत्व जाने बगैर इस परंपरा का ही निर्वाह करते चले आ रहे हैं. मान्यता है कि जब सृष्टि की शुरूआत हुई थी तो पहली फसल जौ ही थी. इसलिए इसे पूर्ण फसल कहा जाता है. यह हवन में देवी-देवताओं को चढ़ाई जाती है यही कारण है. वसंत ऋतु की पहली फसल जौं ही होती है, जिसे हम देवी को अर्पित करते हैं.
इसके अलावा मान्यता तो यह भी है कि जौ उगाने से भविष्य से संबंधित भी कुछ बातों के संकेत मिलते हैं. यदि जौ तेजी से बढ़ते हैं तो घर में सुख-समृद्धि तेजी से बढ़ती है. यदि जौ मुरझाए हुए या इनकी वृद्धि कम हुई हो तो भविष्य में कुछ अशुभ घटना का संकेत मिलता है.
कन्या पूजन का महत्व
हिंदू धर्म के अनुसार नवरात्रों में कन्या पूजन का विशेष महत्व है. मां भगवती के भक्त अष्टमी या नवमी को कन्याओं की विशेष पूजा करते हैं . 9 कुंवारी कन्याओं को सम्मानित ढंग से बुलाकर उनके पैर धोकर कर आसन पर बैठा कर भोजन करा कर सबको दक्षिणा और भेंट देते हैं.
श्रीमद् देवीभागवत के अनुसार कन्या पूजन के नियम
एक वर्ष की कन्या को नहीं बुलाना चाहिए, क्योंकि वह कन्या गंध भोग आदि पदार्थों के स्वाद से बिलकुल अनभिज्ञ रहती है.
‘कुमारी’ कन्या वह कहलाती है जो दो वर्ष की हो चुकी हो, तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति, चार वर्ष की कल्याणी , पांच वर्ष की रोहिणी, छ:वर्ष की कालिका, सात वर्ष की चण्डिका,आठ वर्षकी शाम्भवी, नौ वर्ष की दुर्गा और दस वर्ष की कन्या सुभद्रा कहलाती हैं.
इससे ऊपर की अवस्थावाली कन्या का पूजन नही करना चाहिए. कुमारियों की विधिवत पूजा करनी चाहिए. फिर स्वयं प्रसाद ग्रहण कर अपने व्रत को पूरा कर ब्राह्मण को दक्षिणा दे कर औऱ उनके पैर छू कर विदा करना चाहिए.
कन्याओं के पूजन से प्राप्त होने वाले लाभ
'कुमारी' नाम की कन्या जो दो वर्ष की होती हैं दुःख और दरिद्रता का नाश,शत्रुओं का क्षय और धन,आयु की वृद्धि करती हैं .
'त्रिमूर्ति' नाम की कन्या का पूजन करने से धर्म-अर्थ काम की पूर्ति होती हैं पुत्र- पौत्र आदि की वृद्धि होती है .
'कल्याणी' नाम की कन्या का नित्य पूजन करने से विद्या, विजय, सुख-समृद्धि प्राप्त होती है.
'रोहणी' नाम की कन्या के पूजन से रोगनाश हो जाता है.
'कालिका' नाम की कन्या के पूजन से शत्रुओं का नाश होता है.
'चण्डिका' नाम की कन्या के पूजन से धन और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है.
'शाम्भवी' नाम की कन्या के पूजन से सम्मोहन, दुःख-दरिद्रता का नाश और किसी भी प्रकार के युद्ध (संग्राम) में विजय प्राप्त होती हैं .
'दुर्गा' नाम की कन्या के पूजन से क्रूर शत्रु का नाश, उग्र कर्म की साधना और परलोक में सुख पाने के लिए की जाती हैं
'सुभद्रा' नाम की कन्या के पूजन से मनुष्य के सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं.
मार्कण्डेय-पुराण के अनुसार माँ दुर्गा के नौ रूप
प्रथमं शैलपुत्री च द्दितियं ब्रह्मचारिणी |
तृतीयं चन्द्रघण्टेति, कुष्मंडेति चतुर्थकम ||
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च |
सप्तं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टकम् ||
नवं सिद्दिदात्री च नव दुर्गा प्रकीर्तिता: ||
पहला दिन शैलपुत्री, दूसरा दिन ब्रह्मचारिणी, तीसरा दिन चन्द्रघंटा, चौथे दिन कुष्मांडा, पाचवें दिन स्कंदमाता, छठे दिन कात्यायनी, सातवें दिन कालरात्रि , आठवें दिन महागौरी, नौवें दिन सिद्धिदात्री. इन नौ रूपों में अलग-अलग दिनों में पूजा विधि-विधान से होती है .
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